दार्शनिक और विद्वान कवि एवं काव्य शास्त्रज्ञ : शेषेन्द्र शर्मा

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दार्शनिक और विद्वान कवि एवं काव्य शास्त्रज्ञ : शेषेन्द्र शर्मा


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दार्शनिक और विद्वान कवि एवं काव्य शास्त्रज्ञ


शेषेन्द्र शर्मा


20 अक्तूबर 1927 - 30 मई 2007


 Visionary Poet of the Millennium


http://www.seshendrasharma.weebly.com


मातापिता   : अम्मायम्मा, जी. सुब्रह्मण्यम

भाईबहन : अनसूया, देवसेना, राजशेखरम

धर्मपत्नि  : श्रीमती जानकी शर्मा

संतान : वसुंधरा, रेवती (पुत्रियाँ) वनमाली सात्यकि (पुत्र)

बी.ए   : आन्ध्रा क्रिस्टियन कालेज गुंटूर आं. प्र.

बी.एल. : मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास

नौकरी : डिप्यूटी मुनिसिपल कमीशनर (37 वर्ष) मुनिसिपल अड्मिनिस्ट्रेशन विभाग, आ.प्र.

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शेषेन्द्र नामसे ख्यात शेषेन्द्र शर्मा आधुनिक भारतीय कविता क्षेत्रमें एक अनूठे शिखर हैं । आपका साहित्य कविता और काव्य शास्त्र का सर्वश्रेष्ठ संगम है । विविधता और गहराई में आपका दृष्टिकोण और आपका साहित्य भारतीय साहित्य जगत में आजतक अपरिचित है। कविता से काव्यशास्त्र तक, मंत्र शास्त्र से मार्क्सवाद तक आपकी रचनाएँ एक अनोखी प्रतिभा के साक्षी हैं । संस्कृत, तेलुगु और अंग्रेजी भाषाओं में आपकी गहन विद्वत्ता ने आपको बीसवीं सदी के तुलनात्मक साहित्य में शिखर समान साहित्यकार के रूपमें प्रतिष्ठित किया है। टी. एस. इलियट, आर्चबाल्ड मेक्लीश और शेषेन्द्र विश्व साहित्य और काव्य शास्त्र के त्रिमूर्ति हैं । अपनी चुनी हुई साहित्य विधा के प्रति आपकी निष्ठा और लेखन में विषय की गहराइयों तक पहुंचने की लगन ने शेषेन्द्र को विश्व कविगण और बुद्धिजीवियों के परिवार का सदस्य बनाया है।

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युग-चेतना का निर्माता कवि
युग-चेतना का दहकता सूरज - महाकवि शेषेन्द्र

शेषेन्द्र इस युग का वाद्य और वादक दोनों हैं। वह सिर्फ माध्यम नहीं, युग-चेतना का निर्माता कवि भी है। यह कैसे सम्भव हुआ है? यह इसलिए संभव हुआ है क्यों कि शेषेन्द्र शर्मा में एक नैसर्गिक प्रतिभा है। इस प्रतिभा के हीरे को शेषेन्द्र की बुद्धि ने, दीर्घकालीन अध्ययन और मनन से काट-छाँट कर सुघड़ बनाया है। शेषेन्द्र शर्मा आद्योपान्त (समन्तात) कवि हैं। भारत, अफ्रीका, चीन, सोवियत रूस, ग्रीस तथा यूरोप की सभ्यताओं और संस्कृतियों, साहित्य और कलों का शेषेन्द्र ने मंथन कर, उनके उत्कृष्ट तत्वों को आत्मसात कर लिया है और विभिन्न ज्ञानानुशासनों से उन्होंने अपनी मेघा को विद्युतीकृत कर, अपने को एक ऐसे संवेदनशील माध्यम के रूप में विकसित कर लिया है कि यह समकालीन युग, उनकी संवेदित चेतना के द्वारा अपने विवेक, अपने मानवप्रेम, अपने सौन्दर्यबोध और अपने मर्म को अभिव्यक्ति कर रहा है। विनियोजन की इस सूक्ष्म और जटिल प्रक्रिया और उससे उत्पन्न वेदना को कवि भली-भाँति जानता है। शेषेन्द्र शर्मा जैसे एक वयस्क कवि की रचानएँ पढ़ने को मिली.... एक ऋषि-व्यक्तित्व का साक्षात्कार हुआ। आप भी इस विकसित व्यक्तित्व के पीयूष का पान कीजिए और आगामी उषा के लिए हिल्लोलित हो जाइए।


- डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपूर

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मेरी धरती मेरे लोग
(मेरी धरती मेरे लोग, दहकता सूरज, गुरिल्ला, प्रेम पत्र, पानी हो बहगया,

समुंदर मेरा नाम, शेष-ज्योत्स्ना, खेतों की पुकार, मेरा मयुर)

समकालीन भारतीय और विश्व साहित्य के वरेण्य कवि शेषेन्द्र शर्मा का यह संपूर्ण काव्य संग्रह है। शेषेन्द्र शर्मा ने अपने जीवन काल में रचित समस्त कविता संकलनों को पर्वों में परिवर्तित करके एकत्रित करके “आधुनिक महाभारत'' नाम से प्रकाशित किया है। यह “मेरी धरती मेरे लोग'' नामक तेलुगु महाकाव्य का अनूदित संपूर्ण काव्य संग्रह है। सन् 2004 में “मेरी धरती मेरे लोग'' महाकाव्य नोबेल साहित्य पुरस्कार के लिए भारत वर्ष से नामित किया गया था। शेषेन्द्र भारत सरकार से राष्ट्रेन्दु विशिष्ट पुरस्कार और केन्द्र साहित्य अकादमी के फेलोषिप से सम्मानित किये गये हैं। इस संपूर्ण काव्य संग्रह का प्रकाशन वर्तमान साहित्य परिवेश में एक अपूर्व त्योंहार हैं।


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शेषेन्द्र इस युग का वाद्य और वादक दोनों हैं।
वह सिर्फ माध्यम नहीं
युग-चेतना का निर्माता कवि भी है।

- डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

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....इस महान् कवि का, अपने युग के इस प्रबल प्रमाण-पुरुष का युग-चेतना के इस दहकते सूरज का
हिन्दी के प्रांगण में, राष्ट्रभाषा के विस्तृत परिसर में
शिवात्मक अभिनन्दन होना ही चाहिए।
क्योंकि शेषेन्द्र की संवेदना मात्र 5 करोड तेलुगु भाषियों की नहीं, बल्कि पूरे 11 करोड भारतीयों की समूची संवेदना है।

- डॉ. केदारनाथ लाभ

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इस पुस्तकों के माध्यम से
विश्व
भारतीय आत्मा की धड़कन को महसूस कर सकेगा।


- डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया



                                               

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शेषेन्द्र शर्मा आधुनिक युग के जाने-माने विशिष्ट और बहचर्चित महाकवि हैं। प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र, पाश्चात्य काव्यशास्त्र, आधुनिक पाश्चात्य काव्य सिद्धान्त एवं मार्क्सवादी काव्य सिद्धान्त - इन चारों रचना क्षेत्रों के संबन्ध में सोच-समझकर साहित्य निर्माण की दिशा में कलम चलानेवाले स्वप्न द्रष्टा हैं।
• यह मेनिफेस्टो शेषेन्द्र की उपलब्धियों को दर्शाता है। यह पूर्व, पश्चिम और मार्क्सवादी काव्यदर्शनों का सम्यक तुलनात्मक अनुशीलन प्रस्तुत करता है। इसी कारण से शेषेन्द्र सुविख्यात हुए हैं।
• यह मेनिफेस्टो साहित्य के विद्यार्थियों के लिए दिशा निर्देशक और काव्यशास्त्र के शिक्षकों के लिए मार्गदर्शक है। यह तुलनात्मक दृष्टि से काव्यशास्त्र विज्ञान के अनुशीलन का रास्ता प्रशस्त करता है और उस दिशा में काव्यशास्त्रीय विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन को विद्वत जनों के लिए सुगम बनाता भी है।
• 'कविसेना' एक बौद्धिक आन्दोलन है। नए मस्तिष्कों को नवीन मार्ग का निर्देश करता है और सत्य की शक्ति को नई पीढ़ी द्वारा हासिल करने का मार्ग प्रशस्त करता है। मेनिफेस्टो कविता में सामान्य शब्द को चुम्बकीय शक्ति से अनुप्राणित कर ग्रहण करने की पद्धति का प्रशिक्षण प्रदान करता है। इससे सामान्य शब्द साहित्य को एक हथियार (अस्त्र) बनाता है। समस्या एवं प्रगति प्रशस्त होती हैं। शायद भारत में यह पहली बार संभव हो रहा है। कवि अपनी कलम अपने समय के लिए उठा रहा है। इससे उनकी प्रज्ञा का प्रभाव इस देश की जनता के जीवन को उच्चतम चोटी को छू लेने और समस्याओं को सुलझाने की दिशा में मार्गदर्शक हुआ है।

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.जीवन के आरम्भ में वह अपनी माटी और मनुष्य से जुड़े हुए रहे हैं।
उसकी तीव्र ग्रन्ध आज भी स्मृति में है जो कि उनकी कविता
और उनके चिन्तन में मुखर होती रहती है।
वैसे इतना मैं जानता हूँ कि शेषेन्द्र का कवि और
विचारक आज के माटीय और मानवीय उत्स से
वैचारिक तथा रचनात्मक स्तर के
साथ-साथ क्रियात्मक स्तर पर भी जुड़ते रहे हैं
और इसका बाह्य प्रमाण उनका ‘कवि-सेना' वाला आन्दोलन है।
यह काव्यात्मक आन्दोलन इस अर्थ में चकित कर देने वाला है
कि सारे सामाजिक वैषम्य, वर्गीय-चेतना, आर्थिक शोषण की
विरूपता-वाली राजनीति को रेखांकित करती हुए भी
शेषेन्द्र उसे काव्यात्मक आन्दोलन बनाये रख सके।
मैं नहीं जानता कि काव्य का ऐसा आन्दोलनात्मक पक्ष
किसी अन्य भारतीय भाषा में है या नहीं,
पर हिन्दी में तो नहीं ही है और इसे हिन्दी में आना चाहिए।

- नरेश मेहता
कवि उपन्यासकार, समालोचक
ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता


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- कविता भाव चमत्कार और अर्थ चमत्कार भाव वैचित्रि और अर्थ वैचित्रि है।
- शब्दों की हेराफेरी शब्दों का सर्कस कविता नहीं है।
- कविता एक जीवनशैली है - रोजीरोटी का साधन नहीं।
- कविता एक आत्म कला है - अभूत कल्पना नहीं।
- विशिष्ट भाव और विशिष्ट भाषा अपने रक्त में बहता हुआ असाधारण वाक्य ही कविता है।
- कविता एक मंदिर है - शब्दों और भावों को यहाँ तक कि भगवान को भी स्नान कर उसमें कदम रखना चाहिए।
- जिस प्रकार गद्य में ‘क्या कहा गया है’ महत्मपूर्ण होता है, उसी प्रकार कविता में ‘कैसे कहा गया है’ महत्वपूर्ण है।
- सामाजिक चेतना को साहित्यिक चेतना में परिवर्तित करनेकी क्षमता चाहिए कवि को।
- जीवन की समस्त सामग्री को साहित्यिक सामग्री में परिवर्तित करने की कलात्मक प्रक्रिया-साहित्यिक चेतना चाहिए कवि में।
- समाज में सिर उठाई संस्कृतियाँ और सभ्यताएँ कवियों के निरंतर परिश्रम का अनमोल धरोहर है।
- कवियों का असीम परिश्रम सभ्यता को सजीव रखता आया है।
- कवि का कंठ एक शाश्वत नैतिक शंखध्वनी है।
- कवि चलता फिरता मानवता का संक्षिप्त शब्द चित्र है।


- शेषेन्द्र



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संपर्क : सात्यकि S/o शेषेन्द्र शर्मा


saatyaki@gmail.com,  


+91 9441070985, 77029 64402


काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।


धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ Bhagawat Gita : 1.17 ৷৷


kāśyaśca paramēṣvāsaḥ śikhaṇḍī ca mahārathaḥ.


dhṛṣṭadyumnō virāṭaśca sātyakiścāparājitaḥ ৷৷


sātyakiścāparājitaḥ ৷৷ Bhagawat Gita : 1.17 ৷৷

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   युग-प्रवर्तक महाकवि राष्ट्रेन्दु शेषेन्द्र शर्मा

"मेरी धरती - मेरे लोग "


(20 अक्तूबर 1927 को तटीय आंध्रप्रदेश के पश्चिम उदयगिरि में जन्मे शेषेन्द्र शर्मा की काव्य-प्रतिभा, संगठन-शक्ति और चिंतनशीलता की ख्याति देश-काल की सीमाएँ पार कर चुकी है। कवि-सेना आंदोलन के सूत्रधार 'गुरिल्ला' तथा 'मेरी धरती : मेरे लोग' जैसी अमर- -कृतियों के उत्स, साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित, युवा क्रांतिकारियों के चहेते गुण्टूरु शेषेंद्र शर्मा के रूपकों और प्रतीकों की तुलना आदि कवि वाल्मीकि और कालिदास से की जा सकती है। इनके बिम्ब अप्रतिम हैं। प्रकृति और समाज के सामंजस्य की वैचारिक चैनल पर प्रस्तुति इन्हें विष्वस्तर पर स्थापित कर देने में सक्षम है।)

कुछ साहित्यकार ऐसे होते हैं जो अपने युग से प्रभावित होकर चलते हैं, परंतु कुछ ऐसे भी साहित्यकार होते हैं, जो युग से प्रभावित न होकर अपने विलक्षण व्यक्तित्व द्वारा युग को ही प्रभावित करके उसे अपने साथ ले चलते हैं। शेषेन्द्र दूसरी कोटि के साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी क्रांतिकारी चेतना द्वारा तेलुगु-काव्यधारा में एक नया मोड़ उपस्थित किया है। उन्हों तेलुगु काव्य-साहितय में विप्लवी नवयुवकों की "कवि-सेना" की और एक नूतन कवि: धर्म का प्रवर्तन किया। जो "कवि-सेना-मैनिफैस्टों" के नाम से प्रसिद्ध है। फलतः शेषेन्द्र विप्लवी कवि और नवयुवकों के हृदय-सम्राट बन गए। वास्तव में वे युग-प्रर्वतक महाकवि हैं।

शेषेंद्र सच्चे क्रांतिकारी महाकवि हैं। यद्यपि वे मनसा-वाचा-कर्मणा सच्चे साम्यवादी हैं परंतु उनका कविता किसी वाद विशेष से प्राभावित नहीं रहा हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि जनतंत्र में किसी राजनीतिक दल या राजनैतिक नेता से समाज में क्रंति संभव नहीं है। राजनीति में सर्वत्र भ्रष्टाचार एवं स्वार्थ की दुर्गंध व्याप्त है। जन-कल्याण की भावना आडम्बर मात्र है। इसीलिए महाकवि कहते हैं:

"मेरे देश में नेतृत्व हो किंतु मेरा। मैं इसे राजनीतिज्ञों के हाथों में नहीं सौंप सकता।” यह नव विचार बिंदु है, जहाँ पर यूनान के सुप्रसद्ध दार्शनिक प्लेटो ने गणतंत्र नामक ग्रंथ लिखा जिसमें उन्होंने राज्य-सत्ता के सूत्रों को महात्माओं, साधू-संतों के हाथों सौंपने की वकालत की है, दोनों का संगम हो जाता है।

समाज में क्रांति तो केवल कवि के द्वारा ही संभव है। इसीलिए कवि को स्वतंत्र होना चाहिए। उसे किसी राजनैतिक पार्टी से नहीं जुड़ना चाहिए। वह पार्टी चाहे जितनी भी उत्कृष्ट क्यों न हो। पार्टियों से जुड़ी संस्थाएँ जेबी होती हैं। सच्चा कवि किसी भी जेब में नहीं बैठता। कवि की प्रतिबद्धता किसी पार्टी से न होकर संपूर्ण मानव-जाति से होती है।

शेषेन्द्र जी 'कवि-धर्म पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं। "कवि हमेशा मानव-जाति से प्रतिबद्ध होकर सूर्य की भाँति देदीप्यमान और कर्मसाक्षी होता हैं। वह कदाचित् सत्य कहने में संकोच नहीं करता। उसका परिणाम चाहे जो भी निकले, कितना भी भयानक क्यों न हों।"

कवि के जीवन में 'करुणा' का अत्यधिक महत्व है। 'करुणा' कवि का मूल धर्म है. 'करुणा' और 'कवि' दोनों भिन्न नहीं, अभिन्न हैं। इस तत्य को शेषेंद्रजी उद्घाटित करते हैं "कवि का कवि-हृदय करुणा से, करुणा रस से रूपायित होकर उदित होता हैं। यही कारण है कि हमारे यहाँ आदिकवि वाल्मीकि हुए। करुण कवि शोकमग्न होता है. शोक में से क्रोध का जन्म स्वाभाविक है। इसी क्रोध के वशीभूत होकर वह किरात को शाप देता है वाल्मीकि की कविता प्रथम प्रोटैस्ट कविता है। जो कवि अधर्म के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद नहीं करता, वह कवि नहीं हो सकता है।"

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ऐसा प्रतीत होता है कि शेषेन्द्रजी के काव्य का मूलस्रोत आदिकवि वाल्मीकि की तरह करुण एवं आक्रोश रहा है। किरात द्वारा क्रौंच पक्षी की हत्या के प्रसंग में आदिकवि के हृदय में क्रौंच पक्षी के प्रति जिस प्रकार करुणा और निर्दयी किरात के प्रति आक्रोश सहित शाप पैदा हो गया था, उसी प्रकार महाकवि शेषेंद्र हृदय में अत्याचारी - शोषक दैत्यों के प्रति आक्रोश और धरतीपुत्र किसानों के प्रति करुणा की भावना पैदा हो गयी। फलतः भ्रष्टाचार- तंत्र को समूल नष्ट करने हेतु वे 'गुरिल्ला-सेना' का आहवान करते हैं और दूसरी ओर करुणा से उत्प्रेरित होकर महाकाव्य "मेरी धरती : मेरे लोग" की रचना करते हैं। गुरिल्ला के माध्यम से उन्होंने से महाकवि अपनी मातृभूमि और उसके सपूत किसानों के हृदयों में विलीन हो जाते हैं।

“मैं धरती में लीन हो गया हूँ। वृक्ष और धान्य के समान।


जो इस धरती में समाहित है। मैं उगता हूँ और धान और, फल की तरह इस देश में जीता हूँ। मैं इस देश को जोतनेवाला किसान हूँ।


मेरा शरीर पृथ्वी है। जब ग्रीष्म में सूर्य क्रोधित होता है तो हम दोनों जलते हैं और पानी के लिए तरसते हैं।"


देश में से भ्रष्टतंत्र का सफाया करने के लिए शेषेन्द्र सशस्त्र क्रांति की वकालत करते हैं और फिर इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं :-

"कोई उसे मार नहीं सकता इसकी मृत्यु

जिस पर खुश होता हैं शत्रु वह जीत नहीं है शत्रु की वह धारण करता है

असंख्य वीरों का रूप

उसका एक-एक रक्त-1- बिंदु

सींच रही है जिसे धरा

फेकेंगी बाहर

एक-एक वीर वंश-वृक्ष को । "

ओ गुरिल्ला ! ओ गुरिल्ला ! औ गुरल्लिा!

वास्तव में गुरल्लिा एक नया क्रांतिगीत, एक नया काव्य-दर्शन एवं एक नया सौंदर्य-सास्त्र है।

'मेरी धरती : मेरे लोग' और 'गुरिल्ला' काव्य-रचना के बाद भारतीय साहित्य गगन में प्रभाण्डलमय व्यक्तित्व के साथ दिनकर की तरह शेषेन्द्र जी चमक उठे। प्रादेशिक स्तर से ऊपर उठकर राष्ट्रीय कवि बन गए। इतना ही नहीं, राष्ट्र की सीमाओं को लांघ कर विश्वकवि बन गए। एक यूरोपीय समीक्षक का अभिमत है "केवल टैगोर और गाँधी ही अपने देश की सीमाएँ पार करके विस्तृत विश्व में पहुँचकर वैश्विक नहीं है, बल्कि शेषेन्द्र का महाकाव्य “मेरी धरती : मेरे लोग" इसका एक उदाहरण है।"

प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. सरगु कृष्णूर्ति के मतानुसार और तब हमारे हृदय का हृदय बोल उठता है शेषेन्द्र या तो वाल्मीकि हैं या कालिदास । हृदय की यह स्वीकृति कविता की सब से बड़ी विजय है । शेषेन्द्र केवल कवि-सम्राट ही नहीं, बल्कि हृदयों के भी विजेता रस-सम्राट अंगार भी हैं. शेषेंद्र अपने युग सूरज भी हैं। चाँद भी हैं, अंगार भी हैं, मंदिर भी हैं। वे कवि-कुलकेतु हैं और मन तथा वाणी के सेतु हैं। (राष्ट्रेंदु शेषेंद्र पृ-118)

यह उल्लेखनीय है शेषेन्द्र जी की काव्य-साधना की तीन महानतम उपलब्धियाँ रही है : (1) सन् 1994 में अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन कलकत्ता में राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता पुरस्कार के रूप में “राष्ट्रेंदु” की आपाधि से अलंकृत करना।

(2) उसी वर्ष 1994 में केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार विभूषित करना । (3) सन् 1999 में शेषेंद्र शर्मा को केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा फैलोशिप विशिष्ट सदस्य प्रदान करना।

महाकवि शेषंद्र का सारा जीवन संघर्षमय रहा है । प्रतिकूल परिस्थितियों ने उनके व्यक्तित्व को दूर्धर्ष के रूप में उभारा है। काल की चुनौतियों उन्हें 'अनल-कवि' बना दिया है। अपनी कविता-निर्माण की प्रक्रिया के संबंध मेंशेषेन्द्र जी बताते हैं।

"जब भी मैं कही अत्याचार देखता हूँ, उसके विरुद्ध खड़ा होना, संघर्ष करना और उससे तब तक लड़ना, जब तक विजय नहीं मिलती। पर मेरी विजय किसी अच्छी कविता के रूप में आती है। इसी उत्तेजना, संघर्षशक्ति और क्रोध के मिले-जुले रूप में मेरे अंतर में एक हल्का-सा स्पंदन होता है जो धीरे-धीरे विकसित होता है, जैसे गर्भ में बच्चा पल-बढ़ रहा हो, यह विकास धीरे-धीरे एक बोझ बन जाता है, बढ़ता तूफान और फिर वण्डर में परिवर्तित हो जाता है।"


आंध्रप्रदेश के नेल्लूर जनपद तोटल्लिगुडूर में श्रीमती अम्मयम्मा एवं श्री सुब्रह्मण्यम शर्मा के परिवार में 20 अक्तूबर 1927 को जन्मे शेषेन्द्र शर्मा ने स्थानीय विद्यालयों से शक्षा आरंभ कर मद्रास विश्वविद्यालय से विधि स्नातक की उपाधि अर्जित की। प्रांतीय सेना में रहते हुए हैदराबाद नगर के म्युनिसिपल कमिश्नर पद से सेवा - निवृत हुए। राष्ट्रीय-साम्य और सारल्य से प्रतिबद्ध महाकवि शेषेंद्र शर्मा ने काव्य-क्षेत्र में 'आधुनिक महाबारत', 'गुरिल्ला' महाकाव्य 'मेरी धरती : मेरे लोग' सौंदर्य शास्ज्ञ में 'कवि-सेना मैनिफेस्टो' अनुसंधान शास्त्र में ‘षोडडशी' जैसी लगभग 40 कृतियों के माध्यम से इन सभी क्षेत्रों में नए कीर्तिमान एवं मापदण्ड स्थापित किय। वास्तव में शेषेन्द्र प्रगितशील जनकवि और प्रखर समीक्षक हैं।

अग्रतारा

 विशेषांक 1999


प्रकाशक :

दक्षिण भारत हिन्दी प्रतिष्टान गांधीभवन, हैदराबाद - 500001

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राष्ट्रेन्दु शेषेन्द्र पर समावर्तन का एकाग्र

समावर्तन के लिए यह अत्यंत शुभ प्रसंग है कि तेलुगु के महाकवि और राष्ट्रेन्दु स्व. शेषेन्द्र शर्मा के कृतित्व और व्यक्तित्व से उसके पाठक रूबरू होने जा रहे है।

शेषन्द्र जी के यशस्वी पुत्र श्री सात्यकि जी के माध्यम से ही उनके महाकाव्य 'मेरी धरती : मेरे लोग' का हिंदी अनुवाद (अनुवादक श्री ओंप्रकाश निर्मल) का द्वितीय संस्करण (अक्टूबर 2018) प्राप्त हुआ था। निश्चित ही यह एक अद्वितीय काव्य ग्रंथ है जो चमत्कृत तो करता ही है, काव्य सर्जकों को आईना दिखाता है, प्रेररित करता है और दीप स्तम्भ बन दिशा दर्शन भी करता है।

चूँकि यह हिंदी अनुवाद स्वयं शेषेन्द्र जी की देखरेख में पूर्ण हुआ था इसलिए यह कहा जाना चाहिए कि इसमें कविता का नया मुहावरा तैयार हुआ है। नई भाषा, नया तेवर और चिरपरिचित प्रसंगों/दृश्यों/मिथकों आदि को सर्वथा नवीन बिम्बों में अनुकूल शब्द दिए गए है। अपनी कई रचनाओं में शेषेन्द्र जी का निश्छल निःस्वार्थ राष्ट्रप्रेम उन्हें सही अर्थो में 'राष्ट्रेन्दु' निरूपित करता है यह अलग बात है कि उन्हें न तो ऐसी किसी उपाधि या पुरस्कार/सम्मान की अभिलाषा रही और अपेक्षा भी नहीं रही।

जहाँ तक उनकी काव्य सर्जना की बात है तो आत्मविश्वास और आत्माभिमान से भरी उनकी वाणी इस सत्य को उकेरती जाती है 'किंकियाता नहीं समुद्र/किसी के चरणों पर झुककर/नहीं जानती तूफान की आवाज/जी हुजूरी/सलाम नहीं करता पर्वत किसी को झुककर/संभवत: मैं धूल हूँ एक मुट्ठीभर/पर जब मैं उठाता हूँ कलम/तो होता है मुझमें उतना ही अहम जितना कि एक देश के फहरते ध्वज मे।" अपनी धरती और अपने लोगों से प्रेम करने वाले राष्ट्रकवि स्व. शेषन्द्र जी के समूचे काव्य व्यक्तित्व को नमन करते हुए हम आभारी हैं सात्यकि जी के जिन्होंने कविश्रेष्ठ शेषेन्द्र जी के कृतित्व को और व्यक्तित्व पर एकाग्र हेतु अपेक्षित सामग्री उपलब्ध करायी और हमारे पाठकों को लाभान्वित किया।

-         श्रीराम दवे

संपादक

समावर्तन : मासिक पत्रिका :  जनवरि 2019

http://samavartan.com/

https://archive.org/details/saatyaki_gmail_201901


                                                                    ----------
समीक्षा

राष्ट्रेन्दु शेषेन्द्र : अशेष आयाम

महाकवी शेषेन्द्र शर्मा की प्रथम जीवनी हिंदी में


- नीलीमा सिंह

कविता, समीक्षा, काव्य-शास्त्र और व्यक्तिगत जीवन सभी में निरंतर चर्चित रहे व्यक्तित्व का नाम हैं राष्ट्रेन्द्र शेषेन्द्र । आंध्र प्रदेश में जन्मे गुण्टूर शेषेन्द्र शर्मा एक स्वतन्त्र चेता चिन्तक होने के साथ-साथ राष्ट्रीयता और साम्यवाद को समर्पित हैं । अपनी प्रतिभा के बल पर न्होंने काव्य को नवीन एवम् प्राचीन दोनों ही शैलियों में समकालीन समीक्षकों से लोहा लिया और मनवाया है तो “कविसेना" आन्दोलन चला कर पहली बार तमाम युवा रचनाकारों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया है। इनकी 'कविसेना' मैनिफेस्टो काव्य शास्त्र के नए आयाम उद्घाटित करती है और "मेरी धरती- मेरे लोग " समीक्षकों चिन्तकों को महाकाव्य की नई परिभाषा लिखने को बाध्य करती है।

निश्चाय ही अन्य कारणों के साथ-साथ ये भी कारण रहे होंगे जिन्होंने डॉ. विश्रान्त वशिष्ठ को शेषेन्द्र के व्यक्तिगत एवम् कृतित्व पर “राष्ट्रेन्दु शेषन्द्रः अशेष आयाम' जैसी कृति लिखने को प्रेरित किया जिसके बारे में डॉ. कमल किशोर गोयनका ने लिखा है : "मैं तो भाव विभोर हो उठा। इस व्यक्ति के जीवन से और उसके जीवन की भाषा में रचना करने पर । शेषेन्द्र अद्भुत व्यक्ति हैं - मनुष्य जाति में पैदा होने वाले। उनके व्यक्तित्व का एक पूरा चित्र उभरता है जो शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। अनुराग और कवि, दोनों रूपों में वे ऐसा स्फुरण करते हैं जो इधर वर्षों से नहीं हुआ। और डॉ. विश्रान्त वशिष्ठ की भाषा वह इस व्यक्ति के ही स्तर की है। मैं जिस 'वशिष्ठ' को जानता था, यह कोई दूसरा ही वशिष्ठ है -    एक सम्पूर्ण   रचनाकार ।'

आठ अध्यायों, उनतीस उप - अध्यायों और 141 पृष्ठों में कवि समीक्षक डॉ. विश्रान्त वशिष्ठ ने चिन्तक, प्राशासक, प्रेमी कवि गुण्टूर शेषेन्द्र शर्मा के सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवम् कृतित्व को समेट लेने का असम्भव सा प्रयास किया है अपनी कृति 'राष्ट्रेन्दु शेषेन्द्र : अशेष आयाम' में। एक सामान्य किसान किन्तु विद्वान परिवार में जन्मे शेषेन्द्र अपने प्रशासकीय क्षमता के लिए हमेशा चर्चित रहे। प्रतिष्ठित सरकारी नौकरी पाकर भी इन्होंने अपना अध्ययन, चिन्तन जारी रखा और अपने भावों को अभिव्यक्ति दी।

तेरह काव्य कृतियों तथा कई अन्य समीक्षा, स्वतन्त्र लेख, नाट्य, कथा आदि विधाओं की पुस्तकों के प्रणेता शेषेन्द्र शर्मा की अधिकांश रचनाएँ हिन्दी मों तो उपलब्ध हैं ही देश विदेश की अन्य अनेक भाषाओं में भी इनके अनुवाद हुए हैं।

इस सम्पूर्ण कृतित्व का साहित्यकार शेषन्द्र के व्यक्तित्व से तादात्मय बैठाते हुए समीक्षा और जीवनी को एकमेक कर के डॉ. विश्रान्त वशिष्ठ अपनी कृति प्रस्तुत की है। इस कृति की भाषा तो विषयानुकूल है ही तो धीर- गम्भीर होकर मस्तिष्क को निरन्तर बोझिल ही लगती है और न सीधी सपाट बयानी से सड़क छाप उपन्यास की सी है, यह एक पुस्तक पढ़ कर तेलुगु में प्रतिष्ठित कवि चिन्तक शेषन्द्र का एक स्पष्ट खाका भी पाठक के मन - मस्तिष्क पर खिंच जाता है। निश्चय ही जिन लोगों ने शेषेन्द्र को देखा है उनके मन: पटल पर इसे पढ़ते समय और जिन्होंने इसे पढ़ा है उन्हें शेषेन्द्र को देख कर हू-ब-हू पुनरावृति का आभास होता है।

डॉ. वशिष्ठ ने अपनी इस कृति के माध्यम से उन हिन्दी भाषी विद्वानों को भी तेलुगु में विरचित अद्यतन चिन्ता धाराओं से अवगत कराया है जिन्होंने शेषेन्द्र के हिन्दी अनुवाद नहीं देखे हैं । यह कृति उत्तर दक्षिण के लिए एक सेतु का काम करेगी । यों चिन्तकों के लिए भी इसमें पर्याप्त निहित है।

इन सब के बावजूद डॉ. वशिष्ठ की अपनी सीमाएँ है। तेलुगु न जानने के कारण ये केवल हिन्दी अनुवादों पर निर्भर रहे है जिसके परिणाम  स्वरूप उन कृतियों के तो बस नाम ही आ पाए हैं जिनके अभी तक हिन्दी में अनुवाद नहीं हुए। शेषेन्द्र की पत्नी जानकी का भी बस उल्लेख भर किया गया है जबकि उनके जीवन के अधिकांश की संगिनी और शेषन्द्र के बच्चों की माँ होने का गौरव तो उन्हीं को है।

हमारे सामने इस कृति के आलोक में राष्ट्रेन्द्र शेषेन्द्र का कुल मिलाकर एक विशिष्ट  स्वरूप उपस्थित होता है और इस समीक्षा कृति में आद्यन्त उपन्यास का आनन्द मिलता है। यह न केवल समीक्षा वरन जीवनी लेखन के भी नवीन आयाम उद्घाटित करती है। किसी भी व्यक्ति के माध्यम से उसकी रचनाओं और कृतित्व के मध्यम से व्यक्ति को समझने के लिए एक शैली का विकास और अन्य विद्वानों द्वारा इस प्राकर के लेखन को प्रश्रय मिलना चाहिए। इस शैली की शुरुआत के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।



पूर्णकुंभ : मसिक पत्रिका : अक्टूबर, 1999

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा :  हैदराबाद

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