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Saatyaki s/o Seshendra |
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![]() ![]() ![]() ![]() ![]() --------------- युग-चेतना का निर्माता कवि डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्याल, जयपूर प्रख्यात लेखक आलोचक उपन्यासकार श्री शेषेन्द्र शर्मा आद्योपान्त (समन्तात) कवि हैं। भारत, अफ्रीका, चीन, सोवियत रूस, ग्रीस तथा यूरोप की सभ्यताओं और संस्कृतियों, साहित्य और कलाओं का शेषेन्द्र ने मंथन कर, उनके उत्कृष्ट तत्वों को आत्मसात कर लिया है और विभिन्न ज्ञानानुशासनों से उन्होंने अपनी मेघा को विद्युतीकृत कर, अपने को एक ऐसे संवेदनशील माध्यम के रूप में विकसित कर लिया है कि यह समकालीन युग, उनकी संवेदित चेतना के द्वारा अपने विवेक, अपने मानव प्रेम, अपने सौन्दर्यबोध और अपने 'मर्म को अभिव्यक्ति कर रहा है। शेषेन्द्र इस युग का वाद्य और वादक दोनों हैं । वह सिर्फ माध्यम नहीं, युगचेतना का निर्माता कवि भी है। यह कैसे सम्भव हुआ है ? यह इसलिए संभव हुआ है क्यों कि शेषेन्द्र शर्मा में एक नैसर्गिक प्रतिभा है। इस प्रतिभा के हीरे को शेषेन्द्र की बुद्धि ने, दीर्घकालीन अध्ययन और मनन से काट-छाँट कर सुघड़ बनाया है। अनेक प्रतिभा सम्पन्न हिन्दी के कवियों ने, आपस में भ्रम फैला रखा है कि अध्ययन से प्रतिभा पर परछाइयाँ पड़ जाती हैं जो कवि को मौलिक नहीं रहने देतीं। इस भ्रम से शेपेन्द्र मुक्त हैं वह जानते हैं कि वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, तुलसीदास, सूरदास षेक्सपियर, मिल्टन, टी एस. इलियट, गेटे और ऐसे ही अन्य बड़े कवियों को, जानकारियों ने बिगाड़ा नहीं था, उन्हें समृद्ध और सरसब्ज़ किया था । मात्र अनुभूतियों या मनोगतियों में निमग्न कवि अध्ययनचिन्तन को उलझन मानते हैं पर ऐसे कवि कभी 'वयस्क कवि' नहीं हो पाते क्यों कि उनकी कविता में विचारशीलता का अभाव मिलता है। वयस्क कवि की विशेषता यह होती है कि उसके काव्यरसायन में अधिकाधिक द्रव्यों की निष्पत्ति होती है। उदाहरण के लिए एक 'युवाकवि' (वस्तुतः 'किशोरकवि') की रचना में संवेग की प्रबलता होती है परन्तु प्रायः उसमें चिन्तनशीलता का अभाव मिलता है। हिन्दी के प्रचण्ड विद्रोही किशोर कवियों में इस न्यूनता को साफ देखा जा सकता है । धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, राजकमल चौधरी जैसे बाग़ी या व्याघ्र कवियों में व्याघ्रता तो है, शत्रु पर प्रहार पर प्रहार और स्थितियों की निर्भय नाटकीकरण वहाँ खूब है पर गंभीर अनुचिन्तन का अभाव है। प्रकृति, मानव सभ्यता, और मानव इतिहास, व्याघ्रकवियों की चेतना में चरखी की तरह नहीं घूमते । उनके मन में, शेषेन्द्र शर्मा के मानस की तरह, समूचे ब्रह्माण्ड और सम्पूर्ण मानव विकास की पक्रियाएँ और परिणातियाँ, फिल्म की रील की तरह नहीं चलतीं । अतएव समकालीन काव्यकवि मात्र वर्तमान स्थितियों के तोड़क-फोड़ क हो कर ही रह जाते हैं। उनकी कविताओं में एक संकीर्ण क्षितिज ही चित्रित हो पाता है। चेतना के भूगोल का यह सिकुड़ाव शेषेन्द्र में नहीं मिलता। यहाँ लगता है क्लासिक, स्वच्छन्दतावादी (रोमांटिक) और नयी कविता के दीर्घकालिन आत्मसातीकरण से, परम्परा में जो भी श्रेष्ठ था, वह सब शेषेन्द्र के व्यक्तित्व और रचना में स्वतः स्फूर्त होता चलता है। उनके मानस में संश्लिष्ट काव्यव्यापार सक्रिय होता है जिसमें नया, पुराना, उदात्त और उग्र, सभी मुद्य घुलमिल कर पहले एक हो जाता है फिर कविता लिखने के क्षण में, ये सारे उपकरण अपने-अपने आस्वाद या आनन्द भरते हुए, अन्त में, अपने से भिन्न, एक विशिष्ट आस्वाद की सृष्टि करते हैं । अवयवों या आयामों की बहुलता और अन्त में मिलजुल कर, उन सबसे भिन्न एक नवीन काव्यास्वाद की निष्पत्ति, यह शेषेन्द्र की अपनी रचनाविधि है जो स्वतःस्फूर्त, या स्वयंनिमित अधिक है। शेषेन्द्र की कविता में इस प्रकार वर्ण्यविषय - चिन्तन, अनुभूति और संवेदनाएँ- अपना स्थान और विन्यास स्वयं खोज लेती हैं। अवचेतन से मौके पर, उचित अनुपात में पूर्वस्थित तत्त्व निकल-निकल कर कविता में स्वतः आ विराजते हैं। इसी अर्थ में शेषेन्द्र का मन, कविता का स्वाभाविक माध्यम है पर वहाँ साथ ही एक सचेत कलाकार भी सदैव जाग्रत रहता है । अवयवों और आयामों की बहुलता और कविता में उनके स्वतः विनियोजन या संश्लिष्ट निष्पत्ति के प्रतिमान के आधार पर शेषेन्द्र की कविता एकायामी या अल्पसंख्यक आयामों की समकालीन कविता को यह सबक सिखाती है कि एक वयस्क, एक सम्पूर्ण कवि ही, समकालीन कविता को कालजयी ऊँचाइयाँ, गहराई और विस्तार दे सकता है। शेषन्द्र के काव्य, ‘मेरी धरती : मेरे लोग' तथा 'दहकता सूरज' में बहुसंख्यक आयामों का स्वाभाविक विनियोजन साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। विनियोजन की इस सूक्ष्म और जटिल प्रक्रिया और उससे उत्पन्न वेदना को वि भली-भाँति जानता है। गौर से देखें तो शेषेन्द्र की कविता में कवि प्राय: आत्माविश्लेषण करता जान पड़ता है और इस 'आपबीती' कहने और अपनी मानसिक सक्रियता के रोमांचक बोध के अंकन करने से बाह्य यथार्थ, भुक्तयथार्थ के रूप में व्यक्त होता चलता है। सूक्ष्म प्रक्रियाओं की पकड़ और युगपत् बाहरी लोकसत्य को व्यक्त करने की इस संश्लिष्ट रचना प्रक्रिया को शेषेन्द्र की उन कविताओं में और भी अधिक स्पष्ट ढंग से देखा जा सकता है जो अभी हिन्दी में तेलुगु से अनूदित नहीं हुई हैं : :- Why do these thoughts knock at the door of my mind/ these beautiful thoughts/arrive into my poor house dense with silence/what can I give these angelic guests/......why do you come, why do'you choose me recluse of deserted dwelling x/a refugee of distant worlds?!...... go away and become dawns among the roses of tomorrow1 कवि की अपनी दशा यानी 'आम आदमी' की सामान्य दशा घोषित नहीं होती, वह एक आत्मीय मानसिक विश्लेषण के क्रम में, तुलना या 'कंट्रास्ट' की तरकीब से, स्वतः झंकृत हो जाती है :- Why do they come into these ruins the roof of which is blown off by the rage of winds ! उजाड़ घरों और छतों और प्रबल पवन के विरोधी रंगों की सन्निविष्टता, कविता के पाठक की रीढ़ में, स्थिति की विकटता की अनुभूति सी चोटियों से रिंगाने लगती है, एक मर्मान्तक काव्यानुभव उपलब्ध होता है। लक्ष्य करने योग्य तथा यह है कि इन कविताओं में कतिपय बिम्ब और प्रतीक, अलंकार और उदाहरण पुराने हैं पर अनुभूति की 'आत्मीयता, गहराई स्थिति को परिदृश्यीकृत करने की शक्ति, 'विजन' और व्याकुलता के बीच परिचित अप्रस्तुतों के नये विन्यास भी रचना को नवीन मगर साथ ही सम्प्रेक्षणीय बना देते हैं। आत्मसंवाद की विधि भी आजमायी हुई विधि है मगर इस विधि को शेषेन्द्र शर्मा इस तरह प्रयुक्त करते हैं कि अहंम् से इदम् और इदम् से अहम् की प्रतीति साथ-साथ होती चलती है। शेषेन्द्र इस आत्मसंवाद में, रोमांटिक कवियों जैसे विराट बिम्बों और प्रतीकों को बुनते है पर एक अजीब तरीके से यथार्थबोधक भी बने रहते हैं : Words become two wings and fly away into blue skies/ with the mind One wing turns into a feather of Song/ the other into a courier pigeon' पंखदार शब्दों का यह प्रयोग, इसलिए संभव हुआ है क्योंकि शेषेन्द्र की चेतना में बहुआयामीपन है अतः एक ही शब्द एक पंख से एक ओर गीत बनता है और दूसरे पंख से वही शब्द युगसन्देशवाहक कबूतर बन जाता है ! आत्मसंवाद के इस काव्य व्यापार में प्रकृति, समाज, सौन्दर्य और वेदना, सारे अवयव या धरातल एक साथ झंकृत होते हैं। शेषेन्द्र एक साथ अनेक स्तरों को स्थूल और गुह्य क्षेत्रों को, झंकारों में बदलने में अत्यन्त निपुण कवि हैं। यहाँ रोमांटिक दौर का हस्तलाघव, मानवीकरण बिम्बायोजन, जिज्ञासात्मकता और सृजनामुलता, एक साथ स्पन्दित होती है, और अपनी रोमांटिक कल्पना के रंग को बनाये रखते हुए कवि आज की हालात को भी संकेतित करता चलता है:- Why does the night come/who lets it comes to hide the bronze face/ of the evening/with dark threads?/her dishevelled hair her perfidious face/frightens me the stars shine like nails! शेषेन्द्र इस तरह की गवाहियों के आधार पर रोमांटिक यथार्थवादी या यथार्थवादी रोमांटिक कवि ठहरते हैं पर इस तरह की कोटियों (कैटागरीज) को शेषेन्द्र, साथ ही साथ, अतिक्रमित भी कर जाते हैं । इसीलिए एक वयस्क एक सम्पूर्ण कवि, आलोचना की कोटियों में पूरी तरह बँध नहीं पाता । 'दहकता सूरज' में शेषेन्द्र शर्मा के 'अर्क आफ ब्लड' की विचार शीलता 'और 'शेष ज्योत्स्ना' का सारा सौन्दर्य लहराता-सा जान पड़ता है। 'मेरी धरती : मेरे लोग' की तरह 'दहकता सूरज' में भी चुम्बकीय अभिव्यक्तियों और लागू बिम्बों की भरमार है। यहाँ भी कवि, एक-एक शब्द एक-एक पंक्ति में, आसंगों (असोसियेशन्स) और इतिहासों को कस-कस दबाता है। अतः शेषन्द्र की कविता में झीनापन नहीं है, उसमें सधनता है। 'दहकता सूरज' में आसंग उत्तेजक पंक्तियाँ अनेक हैं । इस विधि से, कवि प्रत्यक्ष वर्णनों से बच जाता है और आत्म संवादी बनी रह कर भी वह लोकपीड़ा की गूँजें पैदा कर सका हैं:- ‘दहकता सूरज' की रचनाओं में चाँदनी (उच्च वर्गों के लिए) में अंधकारपूर्ण यात्रा करते हुए जुगनुओं (समकालीन कवि) की, चमकदार पंक्तियों और बिम्बों से अलंकृत अनेक राशियाँ' हैं। पाठक, वहाँ इनका आनंद ले सकते हैं लेकिन उपर्युक्त चुनी हुई 'वाक्यों की पोटलियों' से भी यह स्पष्ट है कि शेषेन्द्र शर्मा में अद्वितीय काव्यनिपुणता विद्यमान है जो एक दृश्य, एक बिम्ब, एक पक्ति, एक शब्द और शब्दांश से, आज की भारतीय परिस्थिति को ही नहीं, बल्कि आज की समूची सभ्यता की अमानवीयताओं को रेखांकित करती है। यहाँ शब्द और बिब्ब, अपने पीछे छिपे हुए पूर्ण प्रकरण को, मानव दशा को खीच कर हमारे अवधान में ले आते हैं और कविचेतना दिप्-दिप् करती हुई पाठकों के मानस को अपने गुरुत्वाकर्षण से आकर्षित कर लेती है। 'दहकता सूरज की, रचनाओं में 'मेरी धरती: मेरे लोग' की तरह उग्र और भयंकर बिम्ब नहीं हैं पर यहाँ कवि की लोकबंधुता या जनोन्मुखता पंक्ति- पंक्ति में बिंधी हुई है :- मैं स्वेद-बिन्दु हूँ, मैं लोकबंधु हूँ मैं घना अंधकार पीरहा हूँ उन जंगलों में जो वेदना से चीखते हैं। उन पक्षियों के लिए जो लौटे नहीं ! 'दहकता सूरज' की जड़ में यही जनसंवेदना है जो मजबूती के साथ दृश्यों, बिम्बों, प्रतीकों के इन्द्रधनुष्यों और जादुओं को सम्हाले रहती है । वयस्क कवि में कथ्य, प्रगतिशील और मानवीय कथ्य, पसलियों की तरह होता है, जो अपने बीच संवेदनाओं के दुर्ग, हृदय को, सुरक्षित रखता है। किशोर कवियों की रचनाओं में कथ्य की कमज़ोरी या अस्पष्टता से कविता, अस्थिहीन मांस का लोथड़ा बन जाती है, जिसे काल खा जाता है । काल बिम्बों, प्रतीकों और दृश्यों को पुराना बना देती है-मगर सही, सामयिक और अनुभूत कथ्य, काल के गले में हड्डी-सा अटक जाता है और वह घबरा कर मजबूत हाड़ काव्य को छोड़ जाता है। शेषेन्द्र की कविता ऐसी ही कालजयी कविता है। अस्थि, मांस, मज्जा, सुघड़ अवयवों और लावण्य से भरपूर, एक ज्वलनशील कविचेतना की भट्टी पर गरम की हुई और सांचे में ढली हुई कविता । 'दहकता सूरज' में बार-बार अंधकार, अरण्य, अग्नि और सूर्य के बिम्ब- प्रतिबिम्ब आते हैं। ये प्रतीक पुराने हैं पर जैसा कहा जा चुका है, पुराने अतिथि यहाँ अपना कलेवर बदल कर नये अर्थ और नूतन स्पर्श देते हैं। समकालीन कविता में, निराशा और दिशाहीनता की दशा को, शेषन्द्र का 'दहकता सूरज' अपनी प्रखर आँच से, पिघलाता हुआ, मार्ग बताता हुआ जान पड़ता है। वह मंद पड़ती हुई मानव चेतना का, मार और प्यार से, उपचार करता है। इसी अर्थ में प्राचीनों ने वैद्य को 'कविराज' कहा था । शेषेद्र शर्मा ऐसे ही धनवन्तरि कवि हैं। वयस्क कविता केवल स्थिति का दिग्दर्शन ही नहीं कराती, वह स्थिति में परिवर्तन हो सकता है, यह आशा भी जगाती है और पाठकों का मनोबल भी बढ़ाती है। कविता अरण्यरोदन नहीं, खांडवदह्न होती है। उसकी लपटों में मानवमन का सारा कूड़ा करकर जल जाता है, चेतना स्वर्ण-सी दमक उठती है:- "मित्र, इस शाम वह अशुरुबिन्दु एक समुन्दर की तरह क्यों है ? पीओ ! आशमधु का एक घुट पीओ। और आने वाली उषा के लिए हिल्लोलित हो जाओ !" इसी जनोत्साह से संगठन बनते हैं। इसी से दिलों की दीवारें गिरतीं हैं । इसी आंतरिक उछाल से, आत्मविश्वास से संघर्ष में आदमी उड़-उड़ कर लड़ता है और हँसते हुए मौत का सामना करता है। निराशवादियों ने अपनी रूग्ण रचनाओं द्वारा, पाठकों के मनोबल को काफी नुकसान पहुँचाया था, शेषेन्द्र की कविता इस पराजित-पतितप्रवृत्ति का प्रबल प्रतिकार है। शेषेन्द्र शर्मा अपनी संवेदना को 'इडियनिटी' कहते हैं । नीग्रो को गोरे लोग ‘निगर' कहते हैं। इन नीग्रो को गोरे साहब बहादुर पशु मानते हैं। नीग्रो की इस दुर्दशा को ‘निगरीट्यूड' या ‘निगरपन' या 'निगरत्व' कह सकते हैं। इस वज़न पर शेषेन्द्र शर्मा ने 'इंडियनिटी' शब्द बनाया है, जिससे गरीब और गुलाम भारतवर्ष का बोध होता है । 'मेरीधरती : मेरे लोग' तथा 'दहकता सूरज' की कविताओं में भारत की गरीब और अभी भी गुलाम जनता के दुख और तज्जन्य रौद्रता को कविता की नींव में स्थापित किया गया है। यह चीज़ शेषेन्द्र को, स.ही. वात्स्यायन अज्ञेय जैसे आभिजात्य से ग्रस्त कवियों से भिन्न धरातल पर, जनवादी कवियों की पक्ति में खड़ा कर देती है। अज्ञेय और शेषेन्द्र को साथ-साथ पढ़ने पर शेषेन्द्र अज्ञेय से अधिक बड़े कवि और सार्थक कवि प्रमाणित होते हैं। हिन्दी में बहुत से लोग अभी भी यह नहीं मानते कि विश्वभर में 'क्रान्तिकारी कविता' (गुरिल्ला कविता) का ज्वार आ गया है मगर शेषेन्द्र शर्मा नीग्रो कविता पढ़ कर इस सत्य से परिचित और प्रेरित हो चुके हैं। ज्याँपाल सात्र 'निगरीट्यूड' को व्यक्त करने वाली कविता को सही तौर पर मूल्यांकित करते हैं, जब वह कहते हैं कि नीग्रो कविता हमारे समय की सच्ची क्रान्तिकारी कविता है ।' काश अपने हिन्दी के भाई लोग नीग्रो कविता को मनोयोग से पढ़ते और साम्राज्यवादी गोरे साहबों से घृणा करते, वे गोरे, जिन्होंने अफ्रीका, दक्षिणी अमेरीका और स्वयं अमेरीका में करोड़ों लोगों को जानवर बना कर रख छोड़ा है। जहाँ शेषेन्द्र शर्मा के 'विजन' में पीडित महाद्वीपों की शोषित जनता की तकलीफ़ है। हमारे समकालीन हिन्दी के अनेक कवि सिर्फ अमूर्त तकलीफ़ों से दुःख पा रहे हैं और टिसुए बहा रहे हैं। उन्हें लड़ता हुआ आदमी कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता, एसे परजीवियों-उपजीवियों की जहनियत, दरअस्ल, गुलामवंश के ध्वंसावशेषों की जहनियत है, उस पर लानत है। शेषेन्द्र शर्मा, साम्राज्यवाद के इन ध्वंसावशिष्टों के भारतव्यापी षड़यन्त्र से परिचित हैं। ये लोग, इस देश में अंगरेजीपरस्त, कुनबापरस्त सत्तासमर्थक, जनविरोधी देश की मुरक जनधारा से कटे हुए, वेषभूषा और तहजीब में अंगरेज़ों के अनुकरणाकृता और उपभोक्ता समाज के समर्थक हैं । ये लोग भारतीय धोती, भारतीय भाषा, भारतीय संस्कार और भारतीय कला और परम्परा के शत्रु हैं। शेषेन्द्र इन्हीं के शिकार भारतीयों के पक्षधर कवि हैं :- "It is in these groups that my dhoti is hated my language is hated and my civilization... is hated. In my own country this happens to me. अपमानित और शोषित भारतीयता के कवि, शेषेन्द्र के विश्वबोध में न जातिवाद के लिए स्थान है, न धर्मान्धता के लिए। यहाँ न उत्तर और दक्षिण का भेदभाव है, न पूरब और पश्चिम का। यहाँ वह मताग्रह भी नहीं है जो आदमी को मतान्ध बना देता है। यहाँ प्रत्येक मूढमतित्व पर विजय प्राप्त कर, 'शुद्ध और मूल मानवता' के लिए काव्यात्मक संघर्ष किया गया है। इस विवेक और मानव प्रेम पर आधारित मुल मानवता के उद्धार के लिए ही शेषेन्द्र शर्मा कविता और चिन्तन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। कविता की दृष्टि से, शेषेन्द्र शर्मा की असंगति यह है कि वह प्रत्येक कविता को आत्मसंवादी बनाते हैं। इससे एक रसता का जन्म होता है । मैं यह बात 'मेरी धरती : मेरे लोग' की आलोचना में भी लिख चुका हूँ। मेरी समझ में, कवि बंधुओं को या तो स्थिति का निर्भय, बेलाग तथा सम्पूर्ण पर्दाफाश करना चाहिए, या मनोदशा से शुरू न कर, कविता का विषय पीडित व्यक्तियों को बनाना चाहिए जैसा कि धूमिल के 'मोचीराम' में हुआ है। इंडियनिटी' पर सीधे-साधे न लिख कर 'इडियनिटी' जिनमें है या जो उसके शिकार हैं, उन्हें कविता में लाना चाहिए। किसी मजदुर किसी अपमानित व्यक्ति, किसी वंचित कृषक किसी साधन हीन बालक आदि को कविता के केन्द्र में स्थापित करने से, मेरा खयाल है, रचना में भाववाचक संज्ञाओं और निराकारता (एब्सट्रैक्शन) से मुक्ति मिल सकती है। कवि श्री ओमप्रकाश निर्मल ने 'दहकता सूरज' का मूल तेलुगु से हिन्दी में अनुवाद किया है। काश, मैं तेलुगु जानता होता पर इस अभाव में भी मुझे 'दहकता सूरज' पढ़ कर ऐसा लगा ही नहीं कि मैं अनुवाद पढ़ रहा हूँ । निर्मल कवि है और एक कवि, दूसरे कवि को समझता है, 'खग जाने खग ही की भाखा'। मैं इसे अपना सौभाग्य समझता हूँ कि निर्मल की अनुवाद-साधना से मुझे हिन्दी में शेषेन्द्र शर्मा जैसे एक वयस्क कवि की रचानएँ पढ़ने को मिली एक ऋषि-व्यक्तित्व का साक्षात्कार हुआ। आप भी इस विकसित व्यतित्व के पीयूष का पान कीजिए और आगामी उषा के लिए हिल्लोलित हो जाइए। *** दार्शनिक और विद्वान कवि एवं काव्य शास्त्रज्ञ शेषेन्द्र शर्मा 20 अक्तूबर 1927 - 30 मई 2007 Visionary Poet of the Millennium http://www.seshendrasharma.weebly.com मातापिता : अम्मायम्मा, जी. सुब्रह्मण्यम भाईबहन : अनसूया, देवसेना, राजशेखरम धर्मपत्नि : श्रीमती जानकी शर्मा संतान : वसुंधरा, रेवती (पुत्रियाँ) वनमाली सात्यकि (पुत्र) बी.ए : आन्ध्रा क्रिस्टियन कालेज गुंटूर आं. प्र. बी.एल. : मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास नौकरी : डिप्यूटी मुनिसिपल कमीशनर (37 वर्ष) मुनिसिपल अड्मिनिस्ट्रेशन विभाग, आ.प्र. *** शेषेन्द्र नामसे ख्यात शेषेन्द्र शर्मा आधुनिक भारतीय कविता क्षेत्रमें एक अनूठे शिखर हैं । आपका साहित्य कविता और काव्य शास्त्र का सर्वश्रेष्ठ संगम है । विविधता और गहराई में आपका दृष्टिकोण और आपका साहित्य भारतीय साहित्य जगत में आजतक अपरिचित है। कविता से काव्यशास्त्र तक, मंत्र शास्त्र से मार्क्सवाद तक आपकी रचनाएँ एक अनोखी प्रतिभा के साक्षी हैं । संस्कृत, तेलुगु और अंग्रेजी भाषाओं में आपकी गहन विद्वत्ता ने आपको बीसवीं सदी के तुलनात्मक साहित्य में शिखर समान साहित्यकार के रूपमें प्रतिष्ठित किया है। टी. एस. इलियट, आर्चबाल्ड मेक्लीश और शेषेन्द्र विश्व साहित्य और काव्य शास्त्र के त्रिमूर्ति हैं । अपनी चुनी हुई साहित्य विधा के प्रति आपकी निष्ठा और लेखन में विषय की गहराइयों तक पहुंचने की लगन ने शेषेन्द्र को विश्व कविगण और बुद्धिजीवियों के परिवार का सदस्य बनाया है। ------------------ युग-चेतना का निर्माता कवि युग-चेतना का दहकता सूरज - महाकवि शेषेन्द्र शेषेन्द्र इस युग का वाद्य और वादक दोनों हैं। वह सिर्फ माध्यम नहीं, युग-चेतना का निर्माता कवि भी है। यह कैसे सम्भव हुआ है? यह इसलिए संभव हुआ है क्यों कि शेषेन्द्र शर्मा में एक नैसर्गिक प्रतिभा है। इस प्रतिभा के हीरे को शेषेन्द्र की बुद्धि ने, दीर्घकालीन अध्ययन और मनन से काट-छाँट कर सुघड़ बनाया है। शेषेन्द्र शर्मा आद्योपान्त (समन्तात) कवि हैं। भारत, अफ्रीका, चीन, सोवियत रूस, ग्रीस तथा यूरोप की सभ्यताओं और संस्कृतियों, साहित्य और कलों का शेषेन्द्र ने मंथन कर, उनके उत्कृष्ट तत्वों को आत्मसात कर लिया है और विभिन्न ज्ञानानुशासनों से उन्होंने अपनी मेघा को विद्युतीकृत कर, अपने को एक ऐसे संवेदनशील माध्यम के रूप में विकसित कर लिया है कि यह समकालीन युग, उनकी संवेदित चेतना के द्वारा अपने विवेक, अपने मानवप्रेम, अपने सौन्दर्यबोध और अपने मर्म को अभिव्यक्ति कर रहा है। विनियोजन की इस सूक्ष्म और जटिल प्रक्रिया और उससे उत्पन्न वेदना को कवि भली-भाँति जानता है। शेषेन्द्र शर्मा जैसे एक वयस्क कवि की रचानएँ पढ़ने को मिली.... एक ऋषि-व्यक्तित्व का साक्षात्कार हुआ। आप भी इस विकसित व्यक्तित्व के पीयूष का पान कीजिए और आगामी उषा के लिए हिल्लोलित हो जाइए। - डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय अध्यक्ष, हिन्दी विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपूर ------------------------- मेरी धरती मेरे लोग (मेरी धरती मेरे लोग, दहकता सूरज, गुरिल्ला, प्रेम पत्र, पानी हो बहगया, समुंदर मेरा नाम, शेष-ज्योत्स्ना, खेतों की पुकार, मेरा मयुर) समकालीन भारतीय और विश्व साहित्य के वरेण्य कवि शेषेन्द्र शर्मा का यह संपूर्ण काव्य संग्रह है। शेषेन्द्र शर्मा ने अपने जीवन काल में रचित समस्त कविता संकलनों को पर्वों में परिवर्तित करके एकत्रित करके “आधुनिक महाभारत'' नाम से प्रकाशित किया है। यह “मेरी धरती मेरे लोग'' नामक तेलुगु महाकाव्य का अनूदित संपूर्ण काव्य संग्रह है। सन् 2004 में “मेरी धरती मेरे लोग'' महाकाव्य नोबेल साहित्य पुरस्कार के लिए भारत वर्ष से नामित किया गया था। शेषेन्द्र भारत सरकार से राष्ट्रेन्दु विशिष्ट पुरस्कार और केन्द्र साहित्य अकादमी के फेलोषिप से सम्मानित किये गये हैं। इस संपूर्ण काव्य संग्रह का प्रकाशन वर्तमान साहित्य परिवेश में एक अपूर्व त्योंहार हैं। *** शेषेन्द्र इस युग का वाद्य और वादक दोनों हैं। वह सिर्फ माध्यम नहीं युग-चेतना का निर्माता कवि भी है। - डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय *** ....इस महान् कवि का, अपने युग के इस प्रबल प्रमाण-पुरुष का युग-चेतना के इस दहकते सूरज का हिन्दी के प्रांगण में, राष्ट्रभाषा के विस्तृत परिसर में शिवात्मक अभिनन्दन होना ही चाहिए। क्योंकि शेषेन्द्र की संवेदना मात्र 5 करोड तेलुगु भाषियों की नहीं, बल्कि पूरे 11 करोड भारतीयों की समूची संवेदना है। - डॉ. केदारनाथ लाभ *** इस पुस्तकों के माध्यम से विश्व भारतीय आत्मा की धड़कन को महसूस कर सकेगा। - डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया ------------- शेषेन्द्र शर्मा आधुनिक युग के जाने-माने विशिष्ट और बहचर्चित महाकवि हैं। प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र, पाश्चात्य काव्यशास्त्र, आधुनिक पाश्चात्य काव्य सिद्धान्त एवं मार्क्सवादी काव्य सिद्धान्त - इन चारों रचना क्षेत्रों के संबन्ध में सोच-समझकर साहित्य निर्माण की दिशा में कलम चलानेवाले स्वप्न द्रष्टा हैं। • यह मेनिफेस्टो शेषेन्द्र की उपलब्धियों को दर्शाता है। यह पूर्व, पश्चिम और मार्क्सवादी काव्यदर्शनों का सम्यक तुलनात्मक अनुशीलन प्रस्तुत करता है। इसी कारण से शेषेन्द्र सुविख्यात हुए हैं। • यह मेनिफेस्टो साहित्य के विद्यार्थियों के लिए दिशा निर्देशक और काव्यशास्त्र के शिक्षकों के लिए मार्गदर्शक है। यह तुलनात्मक दृष्टि से काव्यशास्त्र विज्ञान के अनुशीलन का रास्ता प्रशस्त करता है और उस दिशा में काव्यशास्त्रीय विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन को विद्वत जनों के लिए सुगम बनाता भी है। • 'कविसेना' एक बौद्धिक आन्दोलन है। नए मस्तिष्कों को नवीन मार्ग का निर्देश करता है और सत्य की शक्ति को नई पीढ़ी द्वारा हासिल करने का मार्ग प्रशस्त करता है। मेनिफेस्टो कविता में सामान्य शब्द को चुम्बकीय शक्ति से अनुप्राणित कर ग्रहण करने की पद्धति का प्रशिक्षण प्रदान करता है। इससे सामान्य शब्द साहित्य को एक हथियार (अस्त्र) बनाता है। समस्या एवं प्रगति प्रशस्त होती हैं। शायद भारत में यह पहली बार संभव हो रहा है। कवि अपनी कलम अपने समय के लिए उठा रहा है। इससे उनकी प्रज्ञा का प्रभाव इस देश की जनता के जीवन को उच्चतम चोटी को छू लेने और समस्याओं को सुलझाने की दिशा में मार्गदर्शक हुआ है। ***** .जीवन के आरम्भ में वह अपनी माटी और मनुष्य से जुड़े हुए रहे हैं। उसकी तीव्र ग्रन्ध आज भी स्मृति में है जो कि उनकी कविता और उनके चिन्तन में मुखर होती रहती है। वैसे इतना मैं जानता हूँ कि शेषेन्द्र का कवि और विचारक आज के माटीय और मानवीय उत्स से वैचारिक तथा रचनात्मक स्तर के साथ-साथ क्रियात्मक स्तर पर भी जुड़ते रहे हैं और इसका बाह्य प्रमाण उनका ‘कवि-सेना' वाला आन्दोलन है। यह काव्यात्मक आन्दोलन इस अर्थ में चकित कर देने वाला है कि सारे सामाजिक वैषम्य, वर्गीय-चेतना, आर्थिक शोषण की विरूपता-वाली राजनीति को रेखांकित करती हुए भी शेषेन्द्र उसे काव्यात्मक आन्दोलन बनाये रख सके। मैं नहीं जानता कि काव्य का ऐसा आन्दोलनात्मक पक्ष किसी अन्य भारतीय भाषा में है या नहीं, पर हिन्दी में तो नहीं ही है और इसे हिन्दी में आना चाहिए। - नरेश मेहता कवि उपन्यासकार, समालोचक ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता |
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