युग-चेतना का दहकता सूरज महाकवि शेषेन्द्र

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युग-चेतना का दहकता सूरज महाकवि शेषेन्द्र


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युग-चेतना का दहकता सूरज महाकवि शेषेन्द्र

डॉ. केदारनाथ लाभ, डी. लिट,

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

राजेन्द्र कॉलेज छप्रा, बीहार-1976

शेषेन्द्र शर्मा समसामयिक तेलुगु काव्य-मन्दिर के कदाचित् शीर्षस्थ कंचन- कलश हैं। उनकी प्रतिभा उस दहकते सूरज की भांति है जो अपनी किरणों की प्रखरता से धरती और आकाश, स्थूल और सूक्ष्म तथा जड़ और चेतन को एक साथ ही एकतान कर भार करता प्रदान करता है । अपने चतुर्दिक परिव्याप्त परिवेशों, आवेष्ठनों और संदर्भों के विराट सागर में शेषेन्द्र, कुशल गोताखोरों की भाँति, अतलता तक डुबकी लगाकर मौलिक उपमानों और मोहक बिम्बों के साथ अपने अभिनव भावों-अनुभावों की रत्न-राशियों को एक विलक्षण मूर्त रूप प्रदान कर देते हैं। स्वभावतः युगीन चेतनाओं से संवलित अपनी कविताओं में उन्होंने न केवल भावों की उदात्तता व्यक्त की है बल्कि उनमें कला की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भंगिमाएँ भी उत्पन्न कर दी है। उनका सम्पूर्ण काव्य-जगत् उनकी गहन चितन शीलता, तरल भावुकता, अभिनव कल्पनाप्रवणता तथा आधुनिक संवेदनशीलता की मीनार हो गया है। अपने परिवेश के प्रति निरन्तर जागरूकता तथा सबल सामाजिक चेतना, ये ऐसे तत्व हैं जो उनके काव्य-पाठकों को उनके युग से जोड़ने मे सहज सक्षम सिद्ध होते हैं ।

महाकवि शेषेन्द्र के भावों और कल्पनाओं का आलोक एक साथ ही अपने युग की दशों दिशाओं में विकीर्ण होकर उनकी विभिन्न समस्याओं का तरल स्पर्श करता है। वे अपने परिवेश को अपनी गहरी संवेदनशील अंतरदृष्टि से देख-परख कर अपनी प्रखर प्रतिक्रिया बेबाक शब्दों में प्रकट कर देते हैं। जहाँ अनेक अन्य कवि युग-विशेष में रहकर भी अपनी पूर्व परम्परा से विशेष निबद्ध रहते हैं वहाँ शेषेन्द्र परम्परा से रस-गंध लेकर भी अपने चारों ओर व्याप्त आवेष्टन से अधिक प्रेरणा ओर प्रकाश ग्राहण कर अपनी कलात्मक वाणी का वासंती वातास बिखेर देते हैं। उनका काव्य-परिवेश उघारलिया हुआ, आयातित, अनभोग और गैर ईमानदार परिवेश नहीं बल्कि अपनी चमडी मज्जा, रक्त-शिराओ और आत्मा से झेला-भोगा हुआ, स्वायत्त और ईमानदार परिवेश है। यहाँ एक बात की स्पष्टता अपेक्षित है। परिवेश दो प्रकार के होते हैं- आन्तर और बाह्य । जहाँ कवि अपने मनोमय कोश में उत्पन्न संस्कारगत निजी जीवन के संदर्भ से उत्पन्न भावों के आलोडन से स्पंदित या आतुर होकर काव्य-प्रणयन करता है। वहाँ उसका परिवेश आन्तर होता है। ऐसी स्थिति में उसकी कविता आत्म निष्ठ होगी। किन्तु, जहाँ कवि के भाव-व्यापार का क्षेत्र बाह्य जगत और उसकी समस्याएँ होंगी वहाँ उसका परिवेश बाह्य होगा। तथा तज्जनित उसकी कविताएँ वस्तुनिष्ठ या वस्तून्मुखी होंगी। ऐसा कवि युग का चारण या वर्तमान बैताली होता है। हिन्दी के कवि दिनकर को इसी कारण ‘युग का चारण' कहा जाता है । किन्तु, शेषेन्द्र युग की समस्याओं को चेतना की आँखों से देखकर अपने प्राणों के रस से सिक्त कर तथा अपनी रागात्मकता के प्याले में भर कर उन्हें इस प्रकार आत्मीय बना लेते हैं कि यह कहना कठिन हो जाता है कि वे किस कोटि के कवि हैं । सच तो यह है कि अपने 'स्व' को उन्होंने ‘पर' में ऐसा आत्मसात् कर दिया है कि वे युग से भिन्न दीखते ही नहीं। इसीसे आन्तर बाह्य परिवेशों की गंगायमुनी आभा-विभा उनके काव्य में एक विलक्षण चमत्कार उत्पन्न कर देती है।

कविता वही ऊँची नहीं होती जिसमें रहस्यात्मक अनुभूति की सूक्ष्मता आकाश की विस्तृति में उडाने भरती हैं, बल्कि, वह भी ऊँची होती है जो युग-बोध की ठोस धरती पर खडी होकर अपने माहौल से, अपनी मिट्टी से सोंधी गंध निचोड कर वायु में बिखेर देती है। राल्फ फॉक्स का कथन है कि श्रेष्ठ कलात्मक रचना का उद्गम राष्ट्रीय एवं सामाजिक मुक्ति के लिए किए जाने वाले जन-संघर्ष में है। बुद्धिमत्ता, सृजनशीलता और स्वतंत्रता के निमित्त जनता के अमर प्रेम ने श्रेष्ठ कलाकारों को सदैव प्रेरित किया है। इसी तत्व को मैं काव्य में मिट्टी की अर्थात् युग की चेतना कहता हूँ। और यह तत्व शेषेन्द्र के काव्य-पट में ताने-बाने की भांति घुला-1 - मिला है। और चूँकि शेषेन्द्र की काव्य-चेतना का उद्गम-स्थल उनका युग है, उनका समाज है, उनका देश और उनके लोग हैं-विशाल भारत के 60 कोटि निवासी-इसी से मैं उन्हें अपने युग का श्रेष्ठ कवि महाकवि कहता हूँ।

(1. Great works of art always have their origin in the struggle of the people for national and social liberation and reflect their cherished aspirations. The people's wisdom, cre- ativeness and their undying love of freedom have always nurtured and inspired great artists-The Novel and the people : Foreword P.P. 7)


अपनी काव्य-पुस्तक 'दहकता सूरज' में कवि ने अपने अस्मिता को, अपने 'स्व' को और अपनी समग्रगत चेतना को अपने पूरे परिवेश के साथ एकमेक कर दिया है, समष्टि में अपनी व्यष्टि सत्ता को पूर्णतः आत्मसात् कर दिया है जैसे कोई बिन्दु सिन्धु से मिलकर उसका विस्तार पा गया हो ।


कवि आज के भारत को देखता है, स्वातंर्त्योत्तर भारत को, जो अब भी नगरों की अपेक्षा गांवों में बसता है, अब भी जो जनता के कोटिशः चरणों से पुनीत बना हुआ है। कवि उसी भारत को अपनी यात्रा - जीवन यात्रा यानि अनुभूति और संवेदना की यात्रा तथा काव्य-यात्रा का पथ मानता है


जो मेरे देश के शरीर पर से दौड़ता


गाँवों और बस्तियों से होता हुआ जलती हुई रक्त नालिका की तरह बहता है।


'वही हैं मेरा पथ'-(मेरा पथ)


हाँ, किसी भी संवेदनशील, युगधर्मी भारतीय कवि की यात्रा को यही पथ सही हो सकता है। क्यों कि आज भी इसी पथ पर


'अपने कंधे पर हल उठाये


चल रहा है कृषक'


'क्रॉस ढोते क्राइस्ट की तरह'- (दूसरा भगवान) क्रॉस ढोते क्राइस्ट के बिम्ब के द्वारा कवि भारतीय कृषक की न केवल पवित्रता, सरलता या तपोनिष्ठता को उजागर करता है बल्कि उसकी समस्त पीड़ाओं, व्यथा-वेदनाओं को ही पूर्णता में व्यक्त कर देता है। एक इसी भाव को, जिसे शेषेन्द्र ने कम से कम शब्दों में; एक बिम्ब से व्यंजित किया है, हिन्दी के कवि दिनकर ने विस्तार से कहा है -


जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम


नहीं है,


छुटे बैल से संग, कभी जीवन में ऐसा याम नहीं है ।


मुख में जीभ, शक्ति भुज में, जीवन में सुख का नाम नहीं है।


वसन कहां ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है ।


vii


-(हुंकार)


दिनकर में यहां संवेदना की सघनता है, किन्तु, कवित्व नहीं है, विवरण की यथातथ्यात्मकता (Statement of fact) है, किन्तु संप्रेषण की चित्रमयता नहीं, फैलाव है, किन्तु, सघनता नहीं। शेषेन्द्र ठीक इसके विपरीत है। लगता है, दिनकर ने जिस पाठक-वर्ग को सामने रखकर काव्य लिखा उसमें, काव्य की सूक्ष्म बोध- वृत्ति नहीं है, लेकिन शेषेन्द्र का पाठक वर्ग काव्य-चेतना से संवलित और।


प्रशिक्षित है।


-


शेषेन्द्र अपने परिवेश की धड़कनों की आवाज बड़ी तेजी से सुनते हैं और अपने वर्तमान के पलों की पीड़ाओं की तस्वीर गहराई से देख लेते हैं। परिवेश की एक ऐसी ही कविता है- 'भूख' भूख क्रान्ति की जननी है। भूख की लिपि से ही समाज में क्रान्ति, विद्रोह या विस्फोट के शब्द लिखे जाते हैं। भूख सामाजिक विषमता का परिणाम और विध्वंस की भूमिका है। स्वभावतः समाज में फैली भूख को कवि ने संवेदना की दृष्टि से देखा है -


जम्हाई लेते और आंखें मलते हुए मैं जागा भूख दिशाओं को जला रही है।


आलमारी पर रखी सेप की तरह सूरज दिगन्त पर है


वह आदमी-


जो मुझे रोज खाता है और मेरे पसीने का


एक गिलास पीकर डकारें लेता है। वह खडा है मेरे सम्मुख


एक चमकते हुए टमाटर - सा...........


मैं उसे खा कर


समुद्र को गटागट पी जाऊँगा


इस रक्तिम प्रभात में।'- (भूख)


भूख सूरज की तरह दिशाओं को जला रही है। और कवि इसे चुप चाप नहीं देख सकता। वह इस सूरज के टमाटर को खा जाएगा जैसे भूखे हनुमान ने सूरज को खा लिया था और अगस्त्य की भांति सागर को पी जायेगा । हिन्दी के युग कवि दिनकर ने भूखे बच्चों के निमित्त दूध लाने के लिए स्वर्ग को लूट लेने की


घोषणा की थी.  'दूध, दूध' - ओ वत्स, मन्दिरों में बहरे पाषाण यहां हैं ? 'दूध-दूध-तारे, बोलने इन बच्चों के भगवान कहां हैं? हटो, व्योम के मेघ ! पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं । 'दूध-दूध' ! ओ वत्स ! तुम्हारा


दूध खोजने हम जाते हैं ।- (हुंकार: हाहाकार)


दिनकर और शेषन्द्र, दोनों में युग के वैषम्य एवं बुझुआ के प्रति आक्रोश का समान ताप है और दोनों के विद्रोही स्वरों में समान तल्खी है फिर भी दिनकर जहाँ अपने पौरुष के पुंजीभूत् ज्वाल की दह्यमानता से स्वर्ग को चुनौती देकर ही अपने कवि धर्म की इति श्री समझ लेते हैं वहां शेषेन्द्र अपनी चुनौती के आवेश में यह नहीं भूल पाते हैं कि वे कवि हैं - कोई भगत सिंह या चन्द्रशेखर 'आजाद' नहीं और किसी भी कवि का धर्म संवेग को लालित्यपूर्ण अभिव्यंजना देना होता है । कविता अन्ततः कविता ही है, जोशीला भाषण नहीं - इस तथ्य पर दिनकर प्रायः ध्यान नहीं दे सके, कम से कम युगीन कविताओं के संदर्भ में । यही कारण है कि दिनकर बुभुक्षित बच्चों का दूध खोजने के क्रम में स्वर्ग तक को लूट लेने का दम भरते या संकल्प लेते हैं, बस । किन्तु शेषेन्द्र भूख को समाप्त करने की दिशा में सूर्य को टमाटर की तरह खा जाने का और समुद्र को 'गटागट' पी जाने का प्रण करता है। यहाँ भूख को पूरी गहराई में महसूसा गया है और उसकी अभिव्यक्ति कला के धरातल पर ही हुई है। यहाँ पौराणिकता के सूत्र में गुंथा हुआ वर्तमान का क्षोभ प्रोज्वल हो उठा है। इसी से मैं कहता हूँ कि शेषेन्द्र की कविता में, युगधर्मी, कविता में, दिनकर की अपेक्षा कवित्व अधिक है। ऊँची कविता के लिए अनुमति की ईमानदारी काफी नहीं होती है उसमें कवित्व का होना भी निहायत जरूरी होता है। स्त्राविसको ने इसी से कहा है कि ईमानदारी एक अनिवार्यता है किन्तु काव्य की सफलता की गारंटी नहीं ।




शेषेन्द्र अपने देश को, अपने युगीन परिवेश को, कई कोणों से, कई रूपों और आकृतियों में देखते हैं और अपने राष्ट्र के दुःख-दर्द से झुलसते हुए अंगों को देखकर अपने काव्य का वह कोणार्क सिरजते हैं। जिस की हर रेखा अपने आपमें एक तसवीर होती है । वे एक केन्द्र से चलकर पूरे वृत्त को ग्रहण कर लेते हैं।


इसी से कहीं उन्हें लगता है-


मेरे देश के शरीर पर तालाब घावों की तरह हैं।


और नदियाँ


रक्तस्राव-सी ।


और कहीं वे देखते हैं-


यह अंधेरा इस तरह


क्यों गर्ज रहा है ?


(दूसरा भगवान)


यह देश को निगलता हुआ क्यों आ रहा है?


इसने बुझा दिया सभी दीपों को-


एक भी दीप शेष नहीं बचा।


(अँधेरे का तुफान)


और कभी वे महसूस करते हैं


(धूप के झंडे)


मेरा देश धूप की बस्ती है।


अथवा


-


यह देश मेरी प्रतिभा का श्मशान


चाहे जितना तेज चलो


फासला कम होने का नहीं


यह धरती मेरी रक्त की प्यासी है।


यह देश जो बौने वृक्षों की छाया में खराटे ले रहा है


इसके लिए मैंने अपना कलम


सूर्य में डुबोयां


और ग्रीष्म-गीत लिखने को


सफेद कागज उठाया। (पुष्प और खामोशी)


अपने देश की इन तस्वीरों को देखकर कवि मूक द्रष्ठा बना नहीं रह पाता है। वह एक धक्का देना चाहता है सड़ी गली व्यवस्था की दीवारों को ढाह दोनेके लिए वह विद्रोह का स्वर फेंकता है। मक्खियाँ शीर्षक कविता में यही स्वर अपनी प्रखरता पर पहुँच गया है। कवि जनता को यातनाओं को लपटों से खड्ग की भांति उठने को ललकारता है। और मंत्रोच्चार करता है कि जो हल जोतकर भी भूख आर्जित करता है उसे भूख की ज्वाला शान्त करने का भी हक है। यदि किसान भूखा रहा तो खेतों में हँसुए भामे हुए घुसे उगेंगे । अतः हमें तारे नहीं प्रज्वलित सूर्य बनना होगा। कवि स्वयं कृषकों की ध्वजा थाम लेना चाहता है-


'वह जो अपने कंधों पर हल उठा कर


अपनी भूख कमाता है।


उसी का हक है। उस भूख को मिटाने का । जो फसल इस साल उगी। अगर उससे इसके दुःख नहीं मिटे-तो अब के बरस दरातियाँ थामे हुए हाथ इन खेतों में उगेंगे। एक नन्हा नक्षत्र दिन नहीं बनता-


हमें दहकता हुआ सूरज चाहिए।


मैं तुम्हारा ध्वज बन कर आकाश में लहराऊँगा ।


वस्तुतः क्रान्तिधर्मी कवि, युग-बोध का कवि, ईमानदार कवि अपने युग के, अपने परिवेश के सही मनुष्य की दुर्दशा का सही चित्र उकेर कर ही अपना धर्म- निर्वाह करेगा। अपने युग के सही मनुष्य को संघर्ष शील होना ही पडेगा। और युग - सत्य की सही झांकी की तलाश करने वाला कवि ऐसे मनुष्य का ही चित्र खींचेगा।


"A seeker in search of the most truthful reflection of reality, the revolutionary writer gives priority to the task of portraying the man of our day. The real man of our epoch is the fighter it is this that makes him the most typical man, that imparts to him the qualitative features which make him the hero of our times. The bourgeois writer does not want to nor can he, portray this kind of man. "


(I. Ralf fox : The novel and the people: Foreward p. 16)


स्वातंर्त्योत्तर भारत के कृषकों की दुर्दशा देखकर कवि दिनकर का भी मोह-


भंग हुआ था और उन्होंने गर्जन किया था-


है शेष यज्ञ जब तक अशेष हतभागों का


शिजनी धनुष


की तब तक नहीं नरम होगी इसलिए-


सुनना हो जिनको सुनें कि मायापुर में मैं


रंगों के मोहक पाश तोड़ने आया हूँ


जो आग खेत की पगडंडी में दौड़ रही


सुरपुर में उसकी लपट छोड़ने आया हूँ ।


                             (2. दिनकर : नीलकुसुम)


महाकवि शेषेन्द्र की युग चेतना उनके सद्यः प्रकाशित महाकाव्य 'मेरी धरती: मेरे लोग' (ना देशम् ना प्रजलु, मई 1975 ) में और अधिक भास्वर और प्रखर हो गयी है। इसका महाकाव्यत्व इसके आकार य पारम्परिक परिभाषा के संदर्भ में नहीं, इसमें व्यंजित युग-चेतना की ऊर्जस्विता एवं उदात्तता में है। लौंजाइनस *ने कहा है कि 'ड्डास्तव में महान रचना वही है...... जिससे प्रभावित न होना कठिन ही नहीं, लगभग असम्भव हो जाए और जिसकी स्मृति इतनी प्रबल और गहरी हो कि मिटाए न मिटे ।' और चूंकि यह एक ऐसी ही महान् कृति है, जिसमें आपात रमणीयता है, जिसका व्यापक प्रभाव मन पर पडे बिना नहीं रहता, इसलिए यह अपने युगीन भाव पुंजों का, युगीन चेतना का महाकाव्य है।


'मेरी धरती : मेरे लोग' का आरंभ एक नाटकीय शैली में होता है। नायक, जो स्वयं कवि हैं, अपने देश और उसके निवासियों की चेतना में अपने आप को आत्मसात् कर उदघोष करता है--


'उठता है प्रत्यूष से एक हाथ । काल के श्रमिक का हाथ .......'


और फिर कल्पना तथा बिम्बों की मनोरम मुक्त-एशियों से समयुगीन जन- जीवन की एक से एक तस्वीर खींचता चला जाता है-


‘“मैं धान्य-जन्मा हूँ और धान्य के लिए जीवित हूँ और मरणोपरान्त धान्य में ही समाजाऊँगा


मैंने अपने देश की नारी को सँवारने के लिए उस सूत से जिसमें रंगों के स्वप्न बसे हैं साडियाँ बुनीं और उनको तितलियों की मानिन्द जन-जीवन की बारागाहों में वितरित कर दिया।


मानवता की पताकाओं को फहराने के लिए मैने पोत निर्मित किये और उन्हें सागरों में उतार दिया ।


*लौंजाइनस के 'पेरिइप्सुस' का अनुवाद: काव्य में उदात्त तत्व: अनु. डॉ. नगेन्द्र पृष्ठ-52


संसार में कोन-सी ऐसी वस्तु है जो इस हाथ के समक्ष समर्पित न हुई । किन्तु फिर भी यह हाथ सदैव खाली ही रहा।


लगता है कवि की दृष्टि मूवी कैमरा के लैंस की तरह अपने देश के परिवेश के चारों ओर घूमती जाती है और सारी छवियों को एक साथ ही शब्दों के रंग भर कर कागज पर उतारती जाती है।


अपना देश सब को प्रीतिकर होता है। महाकवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने भारत के सम्बन्ध में लिखा है-


I love India, not because I cultivate the idolatry of geography, not be- cause I have had the chance to be born in her soil, but because she has saved through tumultuous ages the living words that have issued from the illuminated consciousness of her great sons-Satyam Jnanam Anantam Brahma : Brahma is Truth, Brahma is wisdom, Brahma is Infinite * दिनकर कहते हैं-


भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है, एक देश का नहीं, शील यह भूमजुल भर का है। जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है, देश-देश में वहाँ खडा भारत जीवित भास्वर है ।


भारत को देखने की रवि बाबू की दृष्टि अतीत परक है, पुराण-मूलक हैं आध्यामिक है; दिनकर की दृष्टि भावात्मक है, बल्कि यों कहिए रूमानी है, मगर शेषेन्द्र जिस भारत को देखते हैं वह उनकी आँखों के सामने का फैला हुआ, तथाकथित प्रजातंत्र के नाग-दंश से विमूछत, म्लान, और मुमूर्षु भारत है--


तपस्या कर-करके आदमी ने एक सर्प को जन्म दिया । उसे पालपोस कर बडा किया। और उदारता पूर्वक उसे वोटों का धान्य खिलाया। और यह आशा की कि वह सदैव फण की शीतल छाया में सुख और शांति से जीवन यापन कर सकेगा। अब यह सर्प नियमित रूप से कानून के अंडे देता है। और कभीकभी स्वयं उन अंडों को खाता है !...... सँपेरे की बीन पर वह झूमता और अपना फण हिलाता है। और बीन के बंद होते ही वह फुकारता है और


* The cultural Feritage of Inbia, Vol. P. P. XXI


'आदमी को इस लोकतंत्र संसार से अलग हो जाना चाहिए


चले जाना चाहिये कस्साबों राँजाखोर साधुओं भिखमंगों


अफीमची रंडियों के काली और अन्धी दुनिया में


मसानों में अधजली लाशे नोच कर खाते रहना श्रेयस्कर है।


जीवित पड़ोसियों को खा जाने से


हम लोगों को अब शामिल नहीं रहना है।


इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए खत्म


कर देने की साजिश में ।" (मुक्ति प्रसंग : प्रसंग आठ)


और इसी लहजे में, तेवर में शेषेन्द्र इसी में कहते हैं-- 'यहाँ अब कोई आशा नहीं है।


जीवन यहाँ एक सडे हुए फल की तरह शिथिल है। इस विष-वृक्ष की कलम कहीं भी लगाने से


स्वादिष्ट फल नहीं देगी।


इसलिए इसे निर्मूल करना ही हमारा एक मात्र कर्तव्य है । '


- (मेरी धरती : मेरे लोग : पृ. 33)


लेकिन जहाँ राजकमल शोषण और दोहन से भरे लोकतंत्री संसार से अलग हो जाने अथवा आदमी को खत्मकर देने की साजिश में शामिल नहीं होने की 'नेक सलाह देकर ही चुप रह जाते हैं वहाँ शेषेन्द्र 'विष-वृक्ष' को ही निर्मूल कर देने का स्लाम-आह्वान करते हैं। तथापि इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि कवि आतंकवादी, अराजकतावादी या फासिस्ट है। नहीं, उसका चितन ध्वंसात्मक कम, सर्जनात्मक अधिक है; निषेधात्मक कम, विधेयात्मक अधिक है; ऋणात्मक कम, धनात्मक अधिक है। कवि मूल्य चेतना में अधिक विश्वास करता है । स्वभावतः वह अपने देश और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा का दायित्व तथाकथित राजनायकों पर नहीं छोडकर उन पर रसना चाहता है जो विधायक चिंतन में आस्था रखते हुए मानव-संवेदना में यानी 'सावार ऊपर मानुष सत्य ताहार ऊपर नाई' - में विश्वास रखते हों।


इसीलिए, एक ओर जहाँ कवि अपनी धरती के अपने लोगों को स्वाधीनता के बीज मंत्र की दीक्षा देते हुए कहता है—


'स्वतंत्रता मनुष्य की प्रथम श्वास है । वही तुम्हारे रक्त की जीवंत भाषा है।


इस धरती से अपना अन्तिम चरण उठाने तक उसे अपने पास रोक रखना । तुम्हारी एक मात्र इच्छा होनी चाहिए।......


साहस पूर्वक आगे बढो ! यह देश तुम्हारा है। (पृ. 21)


वही; वह अपने युग सर्वोत्तम प्रमाण-पुरुष, श्रेष्ठ साक्षी होने के कारण यह जयघोष भी करता है-


“मैं देता हूँ वाणी का दान अपने लोगों को।


मेरी भाषा श्वास लेती है मेरे देश की प्राम-वायु में।


मेरी धरती। मेरे शिल्प का जीवन है।


मैं रक्त-प्रवक्ता हूँ।


मेरे देश में नेतृत्व हो, किन्तु, मेरा ।


मैं इसे राजनीतिज्ञों के हाथों" नहीं सौंप सकता।'


(मेरी धरती : मेरे लोग : पृ.25)


देश की प्राण-वायु में साँस लेने वाली कवि की भाषा अपने लोगों की वाणी का दान देती है, अपने लोगों के समस्त सपनों-लालसाओं, हास-अश्रुओं आशाओं-निराशाओं तथा पुलक-प्रस्वेदों को वाणी देती है, वाणी देने का संकल्प करती है। और वाणी का यह दान कवि इसलिए देने को प्रतिबद्ध है क्योंकि उसे अपने धरती, अपने लोग और अपने लोगों की संस्कृति से प्यार है, बेहद प्यार है। वह अपने देश के फूलों को प्यार करता हैं और कांटों को उखाड फेंकने के लिए विकल है। यही वह युग चेतना का कवि हो जाता है। वाल्ट विटमैन कवि को मात्र कल्पना लोक का स्वप्न द्रष्टा नहीं बल्कि उसे "The arbiter of the diverse, the equator of his age" मानता था। शेषेन्द्र व्हिटमैन के निकष पर सोने की भांति खरा उतरने वाला कवि है।


अपने देश का नेतृत्व वाणी-विनायकों के हाथों में सौंपे जाने की कामना करने वाले, अपने युग और परिवेश के संवेदनशील कवि शेषेन्द्र से अभी असीमित अपेक्षाएँ हैं। भारत की मधुरतम और ललित भाषा तेलुगु के इस महान् कवि का, अपने युग के इस प्रबल प्रमाण-पुरुष का, युग चेतना के इस दहकते सूरज का, हिन्दी के प्रांगण में, राष्ट्रभाषा के विस्तृत परिसर में शिवात्मक अभिनन्दन होना ही चाहिए। क्योंकि शेषेन्द्र की संवेदना मात्र 5 करोड तेलुगु भाषियों की नहीं, बल्कि पूरे 55 करोड भारतीयों की समूची संवेदना है।


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दार्शनिक और विद्वान कवि एवं काव्य शास्त्रज्ञ


शेषेन्द्र शर्मा


20 अक्तूबर 1927 - 30 मई 2007


 Visionary Poet of the Millennium


http://www.seshendrasharma.weebly.com


मातापिता   : अम्मायम्मा, जी. सुब्रह्मण्यम

भाईबहन : अनसूया, देवसेना, राजशेखरम

धर्मपत्नि  : श्रीमती जानकी शर्मा

संतान : वसुंधरा, रेवती (पुत्रियाँ) वनमाली सात्यकि (पुत्र)

बी.ए   : आन्ध्रा क्रिस्टियन कालेज गुंटूर आं. प्र.

बी.एल. : मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास

नौकरी : डिप्यूटी मुनिसिपल कमीशनर (37 वर्ष) मुनिसिपल अड्मिनिस्ट्रेशन विभाग, आ.प्र.

***

शेषेन्द्र नामसे ख्यात शेषेन्द्र शर्मा आधुनिक भारतीय कविता क्षेत्रमें एक अनूठे शिखर हैं । आपका साहित्य कविता और काव्य शास्त्र का सर्वश्रेष्ठ संगम है । विविधता और गहराई में आपका दृष्टिकोण और आपका साहित्य भारतीय साहित्य जगत में आजतक अपरिचित है। कविता से काव्यशास्त्र तक, मंत्र शास्त्र से मार्क्सवाद तक आपकी रचनाएँ एक अनोखी प्रतिभा के साक्षी हैं । संस्कृत, तेलुगु और अंग्रेजी भाषाओं में आपकी गहन विद्वत्ता ने आपको बीसवीं सदी के तुलनात्मक साहित्य में शिखर समान साहित्यकार के रूपमें प्रतिष्ठित किया है। टी. एस. इलियट, आर्चबाल्ड मेक्लीश और शेषेन्द्र विश्व साहित्य और काव्य शास्त्र के त्रिमूर्ति हैं । अपनी चुनी हुई साहित्य विधा के प्रति आपकी निष्ठा और लेखन में विषय की गहराइयों तक पहुंचने की लगन ने शेषेन्द्र को विश्व कविगण और बुद्धिजीवियों के परिवार का सदस्य बनाया है।

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युग-चेतना का निर्माता कवि
युग-चेतना का दहकता सूरज - महाकवि शेषेन्द्र

शेषेन्द्र इस युग का वाद्य और वादक दोनों हैं। वह सिर्फ माध्यम नहीं, युग-चेतना का निर्माता कवि भी है। यह कैसे सम्भव हुआ है? यह इसलिए संभव हुआ है क्यों कि शेषेन्द्र शर्मा में एक नैसर्गिक प्रतिभा है। इस प्रतिभा के हीरे को शेषेन्द्र की बुद्धि ने, दीर्घकालीन अध्ययन और मनन से काट-छाँट कर सुघड़ बनाया है। शेषेन्द्र शर्मा आद्योपान्त (समन्तात) कवि हैं। भारत, अफ्रीका, चीन, सोवियत रूस, ग्रीस तथा यूरोप की सभ्यताओं और संस्कृतियों, साहित्य और कलों का शेषेन्द्र ने मंथन कर, उनके उत्कृष्ट तत्वों को आत्मसात कर लिया है और विभिन्न ज्ञानानुशासनों से उन्होंने अपनी मेघा को विद्युतीकृत कर, अपने को एक ऐसे संवेदनशील माध्यम के रूप में विकसित कर लिया है कि यह समकालीन युग, उनकी संवेदित चेतना के द्वारा अपने विवेक, अपने मानवप्रेम, अपने सौन्दर्यबोध और अपने मर्म को अभिव्यक्ति कर रहा है। विनियोजन की इस सूक्ष्म और जटिल प्रक्रिया और उससे उत्पन्न वेदना को कवि भली-भाँति जानता है। शेषेन्द्र शर्मा जैसे एक वयस्क कवि की रचानएँ पढ़ने को मिली.... एक ऋषि-व्यक्तित्व का साक्षात्कार हुआ। आप भी इस विकसित व्यक्तित्व के पीयूष का पान कीजिए और आगामी उषा के लिए हिल्लोलित हो जाइए।


- डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपूर

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मेरी धरती मेरे लोग
(मेरी धरती मेरे लोग, दहकता सूरज, गुरिल्ला, प्रेम पत्र, पानी हो बहगया,

समुंदर मेरा नाम, शेष-ज्योत्स्ना, खेतों की पुकार, मेरा मयुर)

समकालीन भारतीय और विश्व साहित्य के वरेण्य कवि शेषेन्द्र शर्मा का यह संपूर्ण काव्य संग्रह है। शेषेन्द्र शर्मा ने अपने जीवन काल में रचित समस्त कविता संकलनों को पर्वों में परिवर्तित करके एकत्रित करके “आधुनिक महाभारत'' नाम से प्रकाशित किया है। यह “मेरी धरती मेरे लोग'' नामक तेलुगु महाकाव्य का अनूदित संपूर्ण काव्य संग्रह है। सन् 2004 में “मेरी धरती मेरे लोग'' महाकाव्य नोबेल साहित्य पुरस्कार के लिए भारत वर्ष से नामित किया गया था। शेषेन्द्र भारत सरकार से राष्ट्रेन्दु विशिष्ट पुरस्कार और केन्द्र साहित्य अकादमी के फेलोषिप से सम्मानित किये गये हैं। इस संपूर्ण काव्य संग्रह का प्रकाशन वर्तमान साहित्य परिवेश में एक अपूर्व त्योंहार हैं।


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शेषेन्द्र इस युग का वाद्य और वादक दोनों हैं।
वह सिर्फ माध्यम नहीं
युग-चेतना का निर्माता कवि भी है।

- डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

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....इस महान् कवि का, अपने युग के इस प्रबल प्रमाण-पुरुष का युग-चेतना के इस दहकते सूरज का
हिन्दी के प्रांगण में, राष्ट्रभाषा के विस्तृत परिसर में
शिवात्मक अभिनन्दन होना ही चाहिए।
क्योंकि शेषेन्द्र की संवेदना मात्र 5 करोड तेलुगु भाषियों की नहीं, बल्कि पूरे 11 करोड भारतीयों की समूची संवेदना है।

- डॉ. केदारनाथ लाभ

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इस पुस्तकों के माध्यम से
विश्व
भारतीय आत्मा की धड़कन को महसूस कर सकेगा।


- डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया



                                               

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शेषेन्द्र शर्मा आधुनिक युग के जाने-माने विशिष्ट और बहचर्चित महाकवि हैं। प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र, पाश्चात्य काव्यशास्त्र, आधुनिक पाश्चात्य काव्य सिद्धान्त एवं मार्क्सवादी काव्य सिद्धान्त - इन चारों रचना क्षेत्रों के संबन्ध में सोच-समझकर साहित्य निर्माण की दिशा में कलम चलानेवाले स्वप्न द्रष्टा हैं।
• यह मेनिफेस्टो शेषेन्द्र की उपलब्धियों को दर्शाता है। यह पूर्व, पश्चिम और मार्क्सवादी काव्यदर्शनों का सम्यक तुलनात्मक अनुशीलन प्रस्तुत करता है। इसी कारण से शेषेन्द्र सुविख्यात हुए हैं।
• यह मेनिफेस्टो साहित्य के विद्यार्थियों के लिए दिशा निर्देशक और काव्यशास्त्र के शिक्षकों के लिए मार्गदर्शक है। यह तुलनात्मक दृष्टि से काव्यशास्त्र विज्ञान के अनुशीलन का रास्ता प्रशस्त करता है और उस दिशा में काव्यशास्त्रीय विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन को विद्वत जनों के लिए सुगम बनाता भी है।
• 'कविसेना' एक बौद्धिक आन्दोलन है। नए मस्तिष्कों को नवीन मार्ग का निर्देश करता है और सत्य की शक्ति को नई पीढ़ी द्वारा हासिल करने का मार्ग प्रशस्त करता है। मेनिफेस्टो कविता में सामान्य शब्द को चुम्बकीय शक्ति से अनुप्राणित कर ग्रहण करने की पद्धति का प्रशिक्षण प्रदान करता है। इससे सामान्य शब्द साहित्य को एक हथियार (अस्त्र) बनाता है। समस्या एवं प्रगति प्रशस्त होती हैं। शायद भारत में यह पहली बार संभव हो रहा है। कवि अपनी कलम अपने समय के लिए उठा रहा है। इससे उनकी प्रज्ञा का प्रभाव इस देश की जनता के जीवन को उच्चतम चोटी को छू लेने और समस्याओं को सुलझाने की दिशा में मार्गदर्शक हुआ है।

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.जीवन के आरम्भ में वह अपनी माटी और मनुष्य से जुड़े हुए रहे हैं।
उसकी तीव्र ग्रन्ध आज भी स्मृति में है जो कि उनकी कविता
और उनके चिन्तन में मुखर होती रहती है।
वैसे इतना मैं जानता हूँ कि शेषेन्द्र का कवि और
विचारक आज के माटीय और मानवीय उत्स से
वैचारिक तथा रचनात्मक स्तर के
साथ-साथ क्रियात्मक स्तर पर भी जुड़ते रहे हैं
और इसका बाह्य प्रमाण उनका ‘कवि-सेना' वाला आन्दोलन है।
यह काव्यात्मक आन्दोलन इस अर्थ में चकित कर देने वाला है
कि सारे सामाजिक वैषम्य, वर्गीय-चेतना, आर्थिक शोषण की
विरूपता-वाली राजनीति को रेखांकित करती हुए भी
शेषेन्द्र उसे काव्यात्मक आन्दोलन बनाये रख सके।
मैं नहीं जानता कि काव्य का ऐसा आन्दोलनात्मक पक्ष
किसी अन्य भारतीय भाषा में है या नहीं,
पर हिन्दी में तो नहीं ही है और इसे हिन्दी में आना चाहिए।



- नरेश मेहता
कवि उपन्यासकार, समालोचक

     ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता